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विलुप्त होने के कगार पर पहाड़ की प्राचीन वस्तुएं!

डीके जोशी, अल्मोड़ा: उत्तराखंड की संस्कृति एवं जनजीवन से ताल्लुक रखने वाली पारम्परिक काष्ठ से निर्

By Edited By: Published: Tue, 06 Dec 2016 01:00 AM (IST)Updated: Tue, 06 Dec 2016 01:00 AM (IST)
विलुप्त होने के कगार पर पहाड़ की प्राचीन वस्तुएं!

डीके जोशी, अल्मोड़ा: उत्तराखंड की संस्कृति एवं जनजीवन से ताल्लुक रखने वाली पारम्परिक काष्ठ से निर्मित वस्तुएं मसलन दही जमाने के लिए ठेकी, दही फेंटकर मट्ठा तैयार करने वाली ढौकली, अनाज मापन के लिए नाली व माणा तथा खाद्यान्न के संग्रहण के लिए भकार वगैरह अब संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं। यह वस्तुएं सीमांत इलाकों के कुछेक गांवों तक सिमट गई हैं। भले ही पुरानी वस्तुएं अपनी अलग छाप छोड़ने के साथ ही असुविधा के दौर में मानव जीवन के लिए खासे मददगार रहे हों, किंतु आधुनिकता इन पर भारी पड़ी। जिस कारण यह विलुप्ति की ओर बढ़ती जा रही हैं।

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देवभूमि उत्तराखंड में मानवीय कार्यकलाप संस्कृति के ऊषाकाल से शुरू हो गए। ऐसा प्रमाण पाषाण कालीन उपकरण, विभिन्न स्थानों पर चित्रित शैलाश्रय और काष्ठ कला को समेटे दैनिक प्रयोग की अनेक वस्तुएं देती हैं। असुविधा के दौर में यहां मानव ने लकड़ी के खूबसूरत उपयोगी बर्तन व वस्तुएं इजाद कर डाले। जिसमें काष्ठ कला भी बेहतर है। पहाड़ में लकड़ी व रिंगाल की घरेलू काम की वस्तुएं बनने कब शुरू हुआ, इसका उल्लेख स्पष्ट नहीं है, मगर संग्रहालय की शोभा बने यह प्राचीन वस्तुएं करीब डेढ़ सौ से दो सौ साल पुरानी हैं। पहाड़ में दही जमाने के लिए ठेकी तथा दही से मट्ठा तैयार करने के लिए डौकली व रौली बनाई, जो स्वास्थ्य लाभ पहुंचाने वाली सांगड़ व गेठी की लकड़ी से बनी। इसी प्रकार घी रखने के लिए हड़पिया, नमक रखने को आद्रता शोषक तुन का करुवा नामक छोटा बर्तन और तुन की लकड़ी के ही आटा गूंथने व अन्य कार्य को बड़ी पाई या परात का इस्तेमाल हुआ। यहां तक कि छोटे बच्चों को दूध पिलाने के लिए केतलीनुमा गड़वे का प्रयोग हुआ। वहीं कटोरी के रूप में फरवा प्रयोग में रहा। अन्न भंडारण के लिए बड़े संदूक नुमा भकार व पुतका, अनाज की मापन के लिए नाली, पाली, माणा व बेल्का, आटे से बने पके भोजन को रखने के लिए छापरा का प्रचलन था। पहाड़ी वाद्य यंत्र भी काष्ठ से ही तैयार होता है। इनमें से अधिकांश चीजें अब प्रचलन से बाहर हो गई हैं। इसके चलते यह वस्तुएं अब अपनी पहचान तक को तरसने लगी हैं। कतिपय चीजें काफी कम संख्या में सीमांत व दूरस्थ गांवों में सीमित मिलती हैं। इनके साथ ही काष्ठ कला के संरक्षण पर भी प्रश्नचिह्न लग रहा है। क्षेत्र में बिखरे पाषाण कालीन उपकरण, चित्रित शैलाश्रय और काष्ठ कला को समेटे वस्तुओं के संग्रह व अनुरक्षण के लिए सन् 1979 में ऐतिहासिक एवं सास्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में स्थापित राजकीय संग्रहालय के प्रवेश द्वार का कक्ष दैनिक उपयोग की प्राचीन वस्तुओं को प्रदर्शित करता है। जिन्हें सुरुचिपूर्ण व वैज्ञानिक तरीके से प्रदर्शित किया गया है।

रैका, बम व चंद राजवंश के शासनकाल में इस प्रकार के बर्तन अत्यधिक चलन में थे। बर्तन निर्माता वर्ग से विभिन्न करों की वसूली में इस प्रकार के लकड़ी के बर्तन लिए जाते थे। 5 वीं तथा छठी सदी में मंदिरों में मूर्तियों का निर्माण काष्ठ से किया जाता था, इसका प्रमाण देघाट स्थित तालेश्वर मंदिर है।

-डॉ. वीडीएस नेगी, इतिहास विभाग, एसएसजे परिसर, अल्मोड़ा

एक दौर में विशेष महत्व रखने वाली प्राचीन वस्तुओं का प्रयोग अब विलुप्त सा हो गया है। राजकीय संग्रहालय में काष्ठ से बनाई गई दैनिक उपयोग से जुड़ी अनेक प्राचीन वस्तुएं प्रदर्शित की गई हैं। यह वस्तुएं दीर्घकाल तक संरक्षित रहें इसके लिए इन्हें विशेष ट्रीटमेंट के लिए लखनऊ स्थित प्रयोगशाला में भेजा जाता है। काष्ठ कला से जुड़े ऐसी प्राचीन वस्तुओं को तलाशने व उनका संग्रहण करने का काम जारी है।

-डॉ. ज्ञान प्रकाश तिवारी, प्रभारी, राजकीय संग्रहालय, अल्मोड़ा


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