यहां तो 'प्रभु' की कृपा से सब काम हो रहा है
सुलतानपुर : जी हां! अनायास नहीं हकीकत में ये पंक्तियां जुबां पर आ ही जाती हैं। अग्निशमन महकमा हो
सुलतानपुर :
जी हां! अनायास नहीं हकीकत में ये पंक्तियां जुबां पर आ ही जाती हैं। अग्निशमन महकमा हो या पुलिस विभाग अथवा नागरिक सुरक्षा समितियों की दशा.। हालात ही कुछ ऐसे हैं कि लगता है कि यहां सबकुछ यहां ऊपर वाले के भरोसे चल रहा है। ईश्वर करे कभी कोई अनहोनी न हो। वही पुराना ढर्रा जिले में चला आ रहा है। 23 लाख की आबादी वाले शहर में अंग्रेजी हुकूमत की व्यवस्था अभी भी कायम है। सिर्फ एक अदद अग्निशमन केंद्र के कर्मी एवं वाहन पूरे जिले में आग बुझाने व हादसे से निपटने का जिम्मा संभाले हुए हैं। पुलिस महकमे की दशा भी ठीक नहीं। सिपाहियों व दारोगाओं की कमी से जूझ रहे महकमे को जरूरत पड़ जाती है तो पड़ोसी जिलों से सशस्त्र बल मंगाना पड़ता है। नागरिक सुरक्षा समितियां शहर व देहात में औपचारिकता के लिए थाने कोतवालियों के रजिस्टर में 'सक्रिय' हैं। आपदा राहत प्रबंधन के प्रशिक्षण महज खानापूरी बनकर रह गए हैं।
एक अग्निशमन केंद्र के भरोसे 23 लाख लोग
आबादी 23 लाख, फायर स्टेशन सिर्फ एक। जब देश आजाद हुआ तब भी जिले में एक फायर स्टेशन था। आज भी वही फायर स्टेशन है। आबादी कई गुना बढ़कर 23 लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है। हालात ये हैं कि दोस्तपुर, कोइरीपुर, कादीपुर, लम्भुआ आदि कस्बे उपनगर बन चुके हैं। दशकों बीत जाने के बावजूद यहां फायर स्टेशन की स्थापना नहीं हुई। जिले के सत्तर किमी के दायरे में कहीं भी आग लगती है तो जिला मुख्यालय स्थित अग्निशमन केंद्र से ही दमकल व कर्मी भेजे जाते हैं। रही बात प्रशासनिक व्यवस्था की तो वर्षो से इसके लिए खत-ओ-किताबत चल रही है कि नए केंद्र कस्बों में खुले, लेकिन नतीजा जस का तस है। कर्मियों की कमी से जूझ रहे जिले में दमकल विभाग के पास संसाधनों का भी टोटा है। कर्मी न संसाधन बावजूद इसके बस काम चल रहा है।
निष्प्रयोज्य पड़े स्कूल-कालेजों के अग्निशमन यंत्र
जिले के तकरीबन दो हजार बेसिक स्कूलों समेत करीब ढाई सौ माध्यमिक विद्यालयों में अग्निशमन संयंत्र तो हैं लेकिन इनका उपयोग नहीं हो पा रहा है। गांवों में आग लगती है तो भी इन्हें प्रयोग में लाया जा सकता है, लेकिन व्यावहारिक प्रशिक्षण के अभाव व अधिकारियों की उदासीनता के चलते करोड़ों रुपये खर्च कर लाए गए ये संयंत्र निष्प्रयोज्य होते जा रहे हैं। शिक्षक, विद्यार्थी और न ही ग्रामीण इनकी उपयोगिता को समझ सके हैं।
अंग्रेजी हुकूमत के 'सिस्टम' में पुलिस
आधुनिकता ने यूं तो बहुत कुछ बदल दिया है लेकिन पुलिस महकमे में अब भी काफी कुछ पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है। सिपाही-होमगार्ड दशकों पुरानी राइफलों से लैस नजर आते हैं। जबकि जरायम निरंतर बढ़ता जा रहा है। अपराधी हाईटेक हो चुके हैं, लेकिन पुलिस डंडा पीटकर छोटा हो या बड़ा बवाल निपटाने का प्रयास करती है। जिले का बंटवारा हुआ, अमेठी अलग हो गया तो एक उम्मीद जगी कि अब संसाधनों में वृद्धि होगी, लेकिन हालात जस के तस हैं। जिले में कोतवालियों समेत सत्रह थाने हैं। इनमें प्रभारी के रूप में निरीक्षकों की तैनाती होनी चाहिए। लेकिन करीब दस थाने अभी भी उपनिरीक्षक ही चला रहे हैं। एक-एक दारोगा को थानों में कई-कई हल्के दिए गए हैं। सैकड़ों सिपाही अब भी कम हैं।
शहर में बेकार हो गए हाइड्रेंट
एक जमाने में सुलतानपुर शहर की आबादी सिर्फ पचीस हजार थी। उस वक्त पालिका ने जगह-जगह आग बुझाने के लिए जलापूर्ति की पाइप लाइन में हाइड्रेंट बनवाए थे। दशकों बीत गए वे हाइड्रेंट अब दिखते ही नहीं। कारण सड़कें बनती गई और हाइड्रेंट उन्हीं में खो गए। अब दमकल कर्मियों को शहर में कहीं अग्निकांड में होने पर पानी भी साथ लेकर जाना पड़ता है।
आधी आबादी का दुखड़ा सुने कौन..
आधी आबादी का दर्द सुनने के लिए थानों में महिला सिपाहियों की तैनाती होनी चाहिए। लेकिन जिला मुख्यालय पर कोतवाली व महिला थाने को छोड़कर कहीं भी महिला कांस्टेबिल नहीं है। जहां पर तैनाती है भी वे महिला पुलिस कर्मी शाम को जिला मुख्यालय वापस लौट आती हैं। जरूरत पड़ने पर उन्हें घटनास्थल पर भेजा जाता है।
बेकार हुए चौकीदार
अंग्रेज हुकूमत में थानों के चौकीदार ही पुलिस की आंख-कान-नाक थे। बाद के दिनों में भी इनका जलवा होता था। लेकिन आधुनिकता के दौर ने इन्हें बेकार कर दिया है। कारण न इन्हें मोबाइल सेट दिए गए और न ही वक्त के हिसाब से संसाधन। वही अर्द्धशिक्षित लोग चौकीदार बन जा रहे हैं, जिन्हें अभी सामाजिकता का पूरा ज्ञान नहीं है। बस मानदेय मिलता है, जिसके भरोसे टार्च और साइकिल के साथ लालपगड़ी धारण कर हुकूमत के अदब में काम करते दिखाई देते हैं चौकीदार। वक्त पर इनसे सूचनाएं भी पुलिस प्रशासन को नहीं मिल पा रही है।
थानों के रजिस्टर में रह गई सुरक्षा समितियां
नागरिक सुरक्षा की दृष्टि से लोगों को प्रशासन के साथ जोड़ने के लिए थानावार गांव-गांव में सुरक्षा समितियों का गठन दशक भर पहले हुआ था। इनमें सेवानिवृत्त अच्छी शोहरत वाले लोगों को रखा गया था। जिनसे अमन कायम रखने में पुलिस सहयोग लेती थी। अब न तो इनकी बैठकें होती हैं और न ही ये कमेटियां सक्रिय हैं। बस रजिस्टर पर ही इनकी आमद होती है।
ऐसा हो तो बन जाए बात
*तहसील मुख्यालयों लम्भुआ, कादीपुर व जयसिंहपुर समेत प्रमुख विकास खंड मुख्यालय पर फायर स्टेशन बनाए जाएं।
*अग्निशमन केंद्र में पर्याप्त संख्या में वाहन व कर्मियों की तैनाती हो।
*आपदा प्रबंधन का प्रशिक्षण प्रत्येक स्कूल-कालेज व संस्थाओं में अनिवार्य किया जाए।
*थानों व कोतवालियों में कर्मियों को अत्याधुनिक असलहों से लैस कर उन्हें संचालित करने का प्रशिक्षण भी दिलाया जाए।
*नागरिक सुरक्षा समितियों से पुलिस निरंतर संवाद करे। उनके विचारों को प्राथमिकता प्रदान की जाए।
एक नजर में : अग्निशमन विभाग
संसाधन संख्या अपेक्षित
अग्निशमन केंद्र 1 4
अधिकारी 1 4
अतिरिक्त अधिकारी 0 4
फायर मैन 19 39
चालक 4 5
लीडिंग फायर मैन 3 5
वाहन 5 6