'एसटीपी' से बढे़गी गन्ने की पैदावार
शाहजहांपुर : गन्ना पैदावार बढ़ाने के लिए यूपीसीएसआर नित नए शोध और प्रयोग से इतिहास रच रहा है। ग्रीष्म कालीन गन्ना बुवाई पर विराम के लिए पोलीबैग विधि के सफल प्रयोग के बाद अब स्पेस ट्रांस प्लाटिंग (एसटीपी) मेथड पर प्रयोग शुरू किया गया है। आइआइसीआर लखनऊ के वैज्ञानिकों द्वारा ईजाद की गई तीन दशक पुरानी एसटीपी गन्ना बुवाई विधि को उप्र. गन्ना शोध परिषद के निदेशक डा. बख्शीराम ने संजीवनी देकर किसानों में नई उम्मीद जगा दी है।
मेधा का सम्मान और किसानों का मान : भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने तीन दशक पूर्व स्पेस ट्रांस प्लाटिंग विधि से गन्ना बुवाई की तकनीक ईजाद की थी। लेकिन किसान परम्परागत गन्ना बुवाई को छोड़ नही सके। गन्ना शोध संस्थानों ने भी इस विधि से मुंह मोड़ लिया। चार साल के भीतर प्रदेश में बीज बदलाव के लिए प्रयासरत यूपीसीएसआर के डायरेक्टर डा. बख्शीराम ने एसटीपी विधि को पोलीबैग विधि का बेहतर विकल्प मानते हुए काम शुरू कर दिया। इसके तहत उन्होंने शाहजहांपुर समेत गोला, सेवरही, कटिया सादात, मुजफ्फरनगर, बलरामपुर, गोरखपुर आदि शोध केंद्रों पर 17.5 हेक्टेयर में गन्ना बुवाई का लक्ष्य निर्धारित किया है।
छह इंच की बेड पर बोया जाता एक आंख का गन्ना
स्पेस ट्रांस प्लाटिंग विधि के तहत छह इंच की बेड तैयार की जाती है। इस बेड पर एक आंख का गन्ना ऊध्र्वाधर स्थिति में बोया जाता है। इस विधि से खासकर फरवरी मार्च में गन्ने की नर्सरी तैयार कर ली जाती। गेहूं कटाई के बाद सीधे खेत में गन्ने की पौध की रोपाई कर दी जाती है। मई, जून माह में गन्ने में बड़ी संख्या में किल्ले फूटते हैं, जबकि गेहूं कटाई के बाद गन्ना बुवाई में जमाव कम होने के साथ ही किल्ले भी कम बनते हैं। बसंत कालीन गन्ना बुवाई से भी बेहतर किल्ले निकलने से 40 प्रतिशत अधिक पैदावार बढ़ जाती, जबकि ग्रीष्मकालीन गन्ना बुवाई में 25 से 40 फीसद उपज घट जाती है।
पोलीबैग से सस्ती है विधि
पोलीबैग गन्ना बुवाई विधि की अपेक्षा स्पेस ट्रांस प्लांटिंग मेथड से गन्ना बुवाई पर कम खर्च आता है। दरअसल पोलीबैग की खरीद के साथ ही मिट्टी भराई और गन्ने के टुकड़े को पोलीबैग में लगाने पर लागत बढ़ जाती। जबकि एसटीपी में बेड बनाकर सीधे गन्ना को मिट्टी में दबा दिया जाता। इससे श्रम और पैसे की बचत होती है। तमाम किसान इस विधि को अपना भी रहे हैं, लेकिन इसे प्रभावी बनाने के लिए प्रयोग शुरू किया गया है।
डा. बख्शीराम, निदेशक - उप्र. गन्ना शोध परिषद।