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शोध के नाम पर लाखों का बजट बर्बाद

शाहजहांपुर : गन्ना शोध परिषद में शोध के नाम पर खानापूर्ति हो रही है। पिछले दस सालों में यहां से गन्न

By Edited By: Published: Sun, 25 Sep 2016 11:07 PM (IST)Updated: Sun, 25 Sep 2016 11:07 PM (IST)
शोध के नाम पर लाखों का बजट बर्बाद

शाहजहांपुर : गन्ना शोध परिषद में शोध के नाम पर खानापूर्ति हो रही है। पिछले दस सालों में यहां से गन्ने की एक भी ऐसी वैरायटी नहीं तैयार हुई, जो किसानों की पसंद बन सके। जबकि हर साल शोध कार्यों के नाम पर यहां लाखों रुपये का बजट खर्च हो रहा है। मजबूरन किसान दूसरे राज्यों में तैयार की गईं वैरायटी का गन्ना खेतों में लगा रहे हैं।

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एक समय ऐसा था जब गन्ना शोध परिषद में तैयार की गईं वैरायटियां न सिर्फ पूरे उत्तर भारत बल्कि देश के विभिन्न राज्यों के किसानों के पहली पसंद थीं, लेकिन पिछले कुछ सालों से यहां अंदरखाने राजनीति शुरू हुई, जिसका असर शोध कार्यो पर भी पड़ने लगा। हालत यह कि वर्ष 2007 के बाद से एक भी ऐसी वैरायटी तैयार नहीं हो पाई है, जो उत्तर भारत तो दूर प्रदेश या जिले के किसानों को भी लुभा पाती। इस अवधि में जो तीन वैरायटी तैयार की गईं वह सामान्य प्रजाति की थीं। शासन से लेकर किसान तक अर्ली प्रजाति पर जोर दे रहे हैं।

करनाल की वैरायटी लोकप्रिय : किसानों के बीच सबसे लोकप्रिय वैरायटी 118 व 238 है। इनमें भी सबसे ज्यादा डिमांड 238 की है, लेकिन यह दोनों वैरायटी गन्ना शोध परिषद की नहीं है। इसे हरियाणा के करनाल स्थित रिसर्च सेंटर में तत्तकालीन निदेशक डा. बख्शीराम ने तैयार किया था। उसके बाद जब वह यहां आए तो उन्होंने भी परिषद की वैरायटी को उपयुक्त न पाकर यहां 118 व 238 का प्रचार-प्रसार कराया। नतीजतन जिले में 80 प्रतिशत से ज्यादा किसान इसी वैरायटी का लगा रहे हैं, जबकि परिषद की ओर से तैयार सामान्य प्रजातियों का रकबा मुश्किल से 10 प्रतिशत है। दस प्रतिशत रकबा जिन अन्य वैरायटी का है वह भी दूसरे राज्यों में तैयार की गई हैं।

किसान नहीं लेना चाहते रिस्क

शासन, चीनी मिल व वैज्ञानिकों का पूरा जोर अर्ली वैरायटी पर है। इसके लिए बराबर प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, लेकिन गन्ना शोध परिषद सामान्य प्रजातियां तैयार कर रहा है। यहां पर पर 2007 के बाद 12232, 8276 व 11453 वैरायटी तैयार की गईं। सामान्य होने के कारण प्रगतिशील किसान इन्हें लगाने का रिस्क नहीं लेना चाहते हैं, इसलिए यह वैरायटी ज्यादा उपयोगी साबित नहीं हो रही हैं। हालांकि अर्ली प्रजाति की एक वैरायटी 8272 तैयार की गई है, पर इसे अभी किसानों के बीच पहुंचने में समय लग सकता है। यह कितना मुफीद होगी, परिणाम आने में समय लग सकता है।

पुरानी वैरायटियों से किया किनारा : अपवाद के रूप में गन्ना शोध परिषद में तैयार 767 नंबर की वैरायटी को छोड़ दिया जाए तो यहां पर अर्ली वैरायटी की 8436, 95255, लेट वैरायटी की 92423 व रिजेक्ट की 96258 थीं, लेकिन एक निश्चित समय के बाद इनकी उपयोगिता कम होती गई। इनमें रोग लगने लगे तो किसानों ने फसल में होते नुकसान को देखकर इन वैरायटी से किनारा करना शुरू कर दिया। हां 767 नंबर वैरायटी 40 साल से ज्यादा समय तक चली।

लगता है 10 से 12 साल का समय : गन्ने की एक वैरायटी को तैयार करने में करीब 10 से 12 साल का समय लगता है। इसमें प्रजनन, पैथोलॉजी, एंटामोलॉजी, इकोनॉमी व टे¨स्टग के वैज्ञानिकों की टीम लगती है। इसके अलावा डायरेक्टर भी नजर रखते हैं। अगर मान लिया जाए कि एक शोध में छह वैज्ञानिकों की टीम काम करती है तो इन वैज्ञानिकों के वेतन पर ही करीब पांच से छह लाख रुपये महीने का खर्च आता है। जो साल में करीब 60 से 70 लाख और दस साल में करोड़ों रुपये में बैठता है। इसी तरह शोध कार्य में अन्य खर्च भी आते हैं।


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