बंद अखाड़ों से गुमनाम होते गए कुश्ती के खलीफा
संत कबीर नगर: तीन दशक पहले तक गांवों में कुश्ती कला को आगे बढ़ाने के लिए हर गांवों के अखाड़ों पर
संत कबीर नगर:
तीन दशक पहले तक गांवों में कुश्ती कला को आगे बढ़ाने के लिए हर गांवों के अखाड़ों पर खलीफा के रुप में कार्य करने वाले नटुआ समाज के लोग अब बदलते परिवेश में परंपरागत कार्य छोड़कर फेरी और नग आदि बेचकर गुजारा कर रहे हैं। देश में मल्ल कला को आगे बढ़ाने के लिए नटुआ समाज के लोगों की भूमिका अग्रणी रही है। सरकारी स्तर पर प्रोत्साहन न मिलने तथा गंवई परिवेश में कुश्ती कला के प्रति रुझान कम होने से अब अखाड़े भी गायब हो चुके हैं।
मिट्टी की कुश्ती कला का देश के ग्रामीण परिवेश से काफी गहरा नाता रहा है। हर गांवों में अपने अखाड़े हुआ करते थे जिस पर सुबह ही आपस में लड़कर शरीर को कुंदन बनाते हुए बड़ी संख्या में युवक दिखाई पड़ते थे। इसके लिए बकायदा अखाड़ों पर खलीफा हुआ करते थे जो दांव पेंच सिखाने का कार्य करने के साथ ही दिन भर अपने शागिर्दो के चाल चलन पर भी नजर रखते थे। कुश्ती सिखाने का कार्य परंपरागत रुप से नटुआ समाज के लोग करते थे। प्राकृतिक रुप से इनकी मजबूत शारीरिक बनावट और परिवार से मिली कला के कारण समाज में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा हुआ करती थी। गांवों के सम्पन्न लोग अपने गांव के युवकों को कुश्ती सिखाने के लिए नटुआ समाज के पहलवानों को बुलाते थे। पूरे गांव के लोग वर्ष में दो बार फसल कटने पर अनाज दिया करते थे जिससे उनके परिवार को समस्या नहीं होती थी। क्षेत्र में चिरैयाडाड़, अनई, तेतरिया समेत अनेक गांव ही बाहर से आए नटुआ समाज के लोगों के बस जाने से आबाद हो गए थे। इसी का परिणाम था कि मेंहदावल और आसपास के क्षेत्रों में कई नामचीन पहलवान भी हुए। अब अखाड़ों के बंद होते जाने से अब इनकी मांग न रहने से लोग उपेक्षा के कारण खलीफा परिवारों में अगली पीढ़ी अपने परंपरागत कार्य से अलग होने को मजबूर हो गई है। खलीफा रहे रहमत अली, इम्तियाज, इरशाद आदि ने बताया कि अब उनके परिवारों में पत्थर का नग बेचने का कार्य करने के साथ ही अनेक लोग महानगरों में रहकर मजदूरी कर रहे हैं। यहां कुश्ती कला के अवशेष के रुप में सिर्फ पुरखों की कहानियां ही पहचान बनकर रह गई हैं।