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हिन्दी साहित्य के पुरोधा कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर

By Edited By: Published: Sun, 14 Sep 2014 12:31 AM (IST)Updated: Sun, 14 Sep 2014 12:31 AM (IST)
हिन्दी साहित्य के पुरोधा कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर

सहारनपुर : प्रसिद्ध साहित्यकार, शैलीकार, पत्रकार एवं स्वतंत्रता सेनानी कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर उन विरल साधकों में हैं जिन्हें साहित्य और पत्रकारिता में एक साथ प्रथम श्रेणी में सफलता मिली। जिले के देवबंद कस्बे में ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, विक्रमी संवत 1963 तदनुसार 29 मई 1906 को पं.रमादत्त मिश्र-मिश्री देवी के घर में कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर का जन्म हुआ था। प्रभाकर के शब्दों में पिता जी थे दूध-मिश्री, पर मां थी लाल मिर्च। मां क्रोध की ज्वालामुखी, तो पिता शांति के मानसरोवर।

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नहीं हुई औपचारिक शिक्षा

प्रभाकर जी की औपचारिक शिक्षा परिस्थितिवश नहीं हो पाई। खुर्जा के संस्कृत विद्यालय में मध्यमा तक पढ़े लेकिन पढ़ाई बीच में छोड़कर वर्ष 1920 में वे स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े। 1930, 32 व 42 के आंदोलनों में जेल भी गए। उनकी कर्मस्थली स्वतंत्रता आंदोलन ही रहा। 1929 में विशेष आग्रह करके गांधी जी को अपनी जन्म भूमि देवबंद में लाए थे। 9 मई 1995 को उनका देहावसान हो गया।

साहित्यिक यात्रा का आरंभ

हिन्दी साप्ताहिक व मासिक पत्रों में साहित्यिक टिप्पणियों का स्तंभ सबसे पहले प्रभाकर जी ने ही आरंभ किया था। रिपोर्टिग को साहित्यिक रस में पागकर रिपोर्ताज के रूप में स्थापित किया जाना हिन्दी पत्रकारिता के लिए उनका सुंदर उपहार है। रिपोर्ताज के तो वे जनक माने गए हैं।

विनम्रता प्रमुख गुण

जिंदादिली, विनम्रता, धैर्य और विवेक प्रभाकर जी के व्यक्तित्व का प्रमुख गुण रहा। उन्होंने कभी भी निराशा का मुंह नहीं देखा। हमेशा खुलेपन और स्वच्छंदता के साथ जिए। उन्हीं के शब्दों में-'जीने को जो दिन मुझे मिले उन्हें मैंने भरपूर जिया। ये दुनिया मुझे अच्छी लगी और मैने इसकी अच्छाइयों का आनंद लेते हुए उसे और अधिक अच्छा बनाने के उपाय दिए'। उनकी जीवन-शैली का विचार था- सीधी चाल, सादा हाल, विश्वास की ढाल-बस सुख ही सुख।

नई पीढ़ी को उनका संदेश

नई पीढ़ी को अपना संदेश देते हुए प्रभाकर जी ने कहा था कि 'श्रम ही साधना की सबसे बड़ी पूंजी है और उसी से प्रतिभा का विकास होता है।'

दो दर्जन से अधिक सम्मान

जीवन की लगभग आधी शताब्दी के दौरान रचित साहित्य एवं उनके बहुमुखी प्रेरक व्यक्तित्व के लिए मेरठ विवि द्वारा डी लिट की मानद उपाधि, भारतेन्दु पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी व पराडकर पुरस्कार, महाराष्ट्र भारती पुरस्कार सहित दो दर्जन से अधिक सम्मान उन्हें मिले थे। राष्ट्रपति डा.आर वेंकट रमन ने उन्हें 1990 में पद्मश्री सम्मान भेंट किया। प्रभाकर जी के कृतित्व पर एक दर्जन शोध हो चुके हैं।

प्रभाकर जी की प्रमुख कृतियां

-जिंदगी मुस्कुराई, जिंदगी लहलहाई, बाजे पायलिया के घुंघरू, महके आंगन चहके द्वार, आकाश के तारे धरती के फूल, माटी हो गई सोना, जियो तो ऐसे जियो, दीप जले शंख बजे। तपती पगडंडियों पर पदयात्रा, सतह से तह में, अनुशासन की राह में, यह गाथा वीर जवाहर की, एक मामूली पत्थर, दूध का तालाब, भूले हुए चेहरे, नई पीढ़ी नए विचार, बढ़ते चरण।

संचयन का प्रकाशन

साहित्यकार कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर के पुत्र अखिलेश प्रभाकर बताते हैं कि केन्द्रीय साहित्य एकेडमी दिल्ली द्वारा प्रभाकर जी की रचनाओं का 400 पृष्ठों का संचयन प्रकाशित किया गया है। डा.योगेन्द्रनाथ शर्मा अरुण द्वारा संपादित इस संचयन का प्रकाशन एक माह पूर्व ही हुआ है।


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