Move to Jagran APP

़17 जनवरी मैटर फॉर वेब

कर्मो की सार्थकता कर्म ही ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग हैं। लेकिन यह संभव तभी होता है, जब व्यक्ति अप

By Edited By: Published: Tue, 17 Jan 2017 01:56 PM (IST)Updated: Tue, 17 Jan 2017 01:56 PM (IST)
़17 जनवरी मैटर फॉर वेब
़17 जनवरी मैटर फॉर वेब

कर्मो की सार्थकता

loksabha election banner

कर्म ही ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग हैं। लेकिन यह संभव तभी होता है, जब व्यक्ति अपने प्रति आसक्ति छोड़कर दूसरों के कल्याण के लिए कर्म करने लगता है। यही कर्मो की सार्थकता है। आशुतोष महाराज का चिंतन..

यह संसार कर्मो की खेती के समान है। हर मनुष्य अपने-अपने तरीके से कर्म कर रहा है। जिस प्रकार किसान खेत में जैसा बीज बोते हैं, उन्हें वैसी ही फसल काटनी पड़ती है, उसी प्रकार मनुष्य भी जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। इसी कर्म रूपी खेती को काटने के लिए मनुष्य को बार-बार इस संसार में जन्म लेना पड़ता है। यही बंधन है, जो मनुष्य को उसके परम लक्ष्य तक पहुंचने नहीं देता है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि क्षण भर के लिए कोई भी व्यक्ति कर्म किए बिना नहीं रह सकता। यहां मनुष्य को यह विचार करना है कि वह किस प्रकार कर्म के मार्ग पर चलता हुआ जीवन को सफल बनाए। महापुरुष कहते हैं कि अच्छे कर्म करो। किसी से झूठ मत बोलो। हेरा-फेरी न करो। लेकिन केवल अच्छे कर्मो के द्वारा ही जीवन का कल्याण संभव नहीं है, जब तक कि हमारे कर्म लोक-कल्याण के लिए न हों।

एक बार प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण बैठे थे। अचानक प्रभु श्रीराम हंस पड़े। लक्ष्मण आश्चर्यचकित होकर प्रभु श्रीराम को देखने लगे। लक्ष्मण ने पूछा कि भैया, ऐसी कौन-सी बात हुई कि आप एकाएक हंस पड़े। तब प्रभु श्रीराम ने कहा कि सामने वह जो कीड़ा पेड़ पर चढ़ रहा है, उसे देखकर हंसी आ गई। लक्ष्मण ने देखा कि एक कीड़ा वृक्ष पर चढ़ने का प्रयास कर रहा है, लेकिन बार-बार वह नीचे गिर जाता है। लक्ष्मण ने पूछा- प्रभु, इसमें हंसने वाली क्या बात है। तब उन्होंने कहा कि जिस कीड़े को आप देख रहे हैं, इसमें जो चेतन शक्ति है, इसके बल पर वह कई असंभव कार्य कर चुका है। उसने अब तक कोई पुण्य का कार्य यानी परोपकार का कार्य नहीं किया, इसलिए इसे अभी तक मुक्ति नहीं मिली है। रामायण के अनुसार, मानव तन की प्राप्ति कर जो विषय-विकारों में लिप्त हो जाते हैं, वे इस जीवन की महान प्राप्ति अमृत को छोड़ बदले में विष ले रहे होते हैं। गुरुवाणी में श्री गुरु अर्जुन देव कहते हैं कि जीव जितने भी कर्म करता है, वह कर्म करते-करते थक जाता है, लेकिन बंधन से छुटकारा नहीं मिल पाता। दूसरों के लिए किए गए अच्छे कर्मो द्वारा ही कल्याण संभव है।

पृथ्वी पर किसी का भी जीवन स्थिर नहीं माना जा सकता है। इसलिए जीवन के लक्ष्य को संवारने के लिए संतों की वाणी कल्याणकारी साबित हो सकती है। कर्म तभी सार्थक हो सकते हैं, जब वे परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाएं। मुण्डकोपनिषद् के अनुसार, प्रभु को इन आंखों के द्वारा नहीं देखा जा सकता है और न ही दूसरी इंद्रियों के द्वारा उनकी प्राप्ति हो सकती है। तपस्या एवं कर्मो द्वारा भी प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जब ज्ञान की कृपा होती है, यानी अंतदर्ृष्टि खुलती है, तभी मनुष्य के अंदर अपने लिए किसी प्रकार की चाह नहीं रह जाती। वह दूसरों के लिए कर्म करता है। ब्रह्म का ध्यान करते हुए अपने कर्मो में प्रभु का दर्शन करता है। तभी तो जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने विराट रूप का दर्शन दिया, तो उन्होंने कहा कि हे अर्जुन, तुमने अभी जिस स्वरूप को देखा है, उस रूप में मुझको न तो वेदों के अध्ययन के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और न ही तपस्या द्वारा या फिर दान या यज्ञ द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर को आसक्ति रहित कर्मो द्वारा ही देखा जा सकता है।

आध्यात्मिकता और उल्लास का संगम

माघ मास पर विशेष..

भारतीय दर्शन में आध्यात्मिक दृष्टि से माघ मास का विशेष महत्व है। इसे आलोक मास भी कहा गया गया। सूर्योपासना के इस विशिष्ट माह की महिमा गोस्वामी तुलसीदास जी के इन शब्दों में स्वत: स्पष्ट हो जाती है:

माघ मकर गत रवि जब होई,

तीरथ-पतिहि आव सब कोई।

इस माह में पड़ने वाले हर पर्व के रूप-रंग निराले व अनोखे हैं। इसमें आध्यात्मिकता के साथ भरपूर उल्लास भी है और लोकतत्वों की जीवंतता भी। प्रकृति के प्रति आदरभाव और सकारात्मकता है, तो लोकरंजन की गहन भावना भी। इसमें दान देने की उदात्तता समाहित है। स्नान-दान का यह काल विशेष मानव समाज को अपने अंतर में संयम व त्याग के दिव्य भाव जगाने की शुभ प्रेरणा देता है। ऋ तु चक्र के परिवर्तन का यह पर्व तब मनाया जाता है, जब खेतों में फसल कट चुकी होती है और किसान अच्छी पैदावार के लिए प्रकृति को धन्यवाद देते हैं। हमारा अन्नदाता खुद को प्रकृति से अलग नहीं, बल्कि उसको अपना सबसे प्रिय और आराध्य मानता है। इस स्नान पर्व के प्रसाद में भी यह विशिष्टता दिखती है। तिल, गुड़ और उड़द की दाल जैसे उष्ण प्रवृत्ति के भोच्य पदाथरें के सेवन का विधान। यही वजह है कि देश के विभिन्न प्रातों में अद्भुत परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ एक माह का यह स्नान पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।

इस स्नान पर्व का शुभारंभ मकर संक्रांति से होता है। इस दिन सूर्य नारायण अपनी दिशा बदलकर धनु राशि से मकर राशि में संक्रमण कर हमारे अधिक निकट आ जाते हैं। उनकी यह समीपता हमारे जीवन में नवजीवन भरती है। सूर्य की ऊर्जा अधिक मात्रा में मिलने से जीव-जगत में सक्रियता बढ़ जाती है। माघ के महीने में सूर्य का महत्व इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि वह अपनी गति उत्तरायण की ओर करके हमें यह संकेत देते हैं कि अब अंधकार को छोड़ प्रकाश की ओर बढ़ने का समय आ गया है। इसी कारण साधना विज्ञान के मर्मज्ञों ने माघ मास को सबसे अधिक महत्व दिया है। वैदिक साहित्य में उल्लेख है कि हमारे ऋ षि-मनीषी इस महीने में विभिन्न उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधनाएं करते थे।

यह परंपरा रामायण एवं महाभारत काल में भी प्रचलित थी। रामायण काल में तीर्थराज प्रयाग में महर्षि भारद्वाज का आश्रम एवं साधना आरण्यक था, जहा समूचे आर्यावर्त के जिज्ञासु साधक एकत्रित हो संगमतट पर एक मास का कल्पवास करते थे। माघ मास में प्रयाग की पुण्यभूमि में होने वाले आध्यात्मिक समागम में बड़ी संख्या में लोग कल्पवास के लिए जुटते हैं। कुंभ पर्व पर तो इसकी रौनक देखते ही बनती है। इस स्नान पर्व की उल्लेख चीनी इतिहासकार ह्वेनसाग ने अपने भारत के यात्रा वृत्तात में भी किया है। हमारे पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी कृति 'भारत एक खोज' में माघ मेले का

अद्भुत चित्रण किया है। एक माह तक चलने वाले इस धार्मिक मेले में देश-विदेश से करोड़ों लोग स्नान, दान जप, तप, भजन, प्रवचन के लिए यहा आते हैं। प्रयाग, उत्तरकाशी, हरिद्वार, उच्जैन, नासिक, अयोध्या व नैमिषारण्य जैसे देश के प्रमुख तीर्थस्थलों में इस स्नान पर्व पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं।

वैसे तो इस महीने की प्रत्येक तिथि पवित्र मानी गई है, लेकिन प्रमुख पर्व हैं-मकर संक्राति, संकष्टी चतुर्थी, अचला सप्तमी, माघी पूर्णिमा षट्तिला एकादशी, मौनी अमावस्या, वसंत पंचमी और जया एकादशी।

माघ शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि भीष्माष्टमी के नाम से भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इस तिथि को भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया था। उन्हीं की पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है।

षट्तिला एकादशी के दिन छह प्रकार से तिल के सेवन का विधान है। इस दिन तिल के जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल से हवन, तिल मिले जल का पान,तिल का भोजन तथा तिल का दान किया जाता है।

मौनी अमावस्या माघ मास का प्रमुख पर्व है, जो कृष्णपक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है। आत्मसंयम की साधना की दृष्टि से इस स्नान पर्व का विशेष महत्व है। इसी प्रकार माघ मास की शुक्ल पंचमी को वसंत पंचमी का पर्व मनाया जाता है। मान्यता है कि देवी सरस्वती का इस दिन आविर्भाव हुआ था। इसीलिए इसे वागीश्वरी जयंती एवं श्रीपंचमी कही गयी है।

माघ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को जया एकादशी कहते हैं। मान्यता है कि इसका व्रत करने से मनुष्य को भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

गुलाब की तरह हो जाएं ध्यानस्थ

स्लग : योग -ध्यान

ध्यान की अवस्था में ले जाने की एक सरल प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को अपनाकर हम गुलाब की तरह सुगंधित और सुवासित हो सकते हैं।

दरअसल, जो लोग ध्यान में गहरे उतरना चाहते हैं, उनके लिए ध्यान की एक विधि है- मिस्टिक रोज ध्यान। इसे आजमाने से पहले उन्हें तीन चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। पहला चरण है- हंसना।

हंसना

पहले चरण में लोगों को तीन घंटे तक लगातार बिना किसी कारण के हंसना पड़ता है। जब भी आपकी हंसी चुकने लगे, तो आप एक बार जोर से कहें 'या-हू' और आपकी हंसी लौट आती है। तीन घंटे तक हंसने के बाद हमें ऐसा लगता है कि हमारे प्राण पर धूल की कई परतें जमी हुई थीं। हंसी तलवार की तरह उन्हें एक बार में काट डालती है। ऐसा आप सात दिन तक लगातार, रोज तीन घंटे करते रहें। इससे आपको अपने भीतर रूपांतरण का एहसास होता है।

रोना

दूसरा चरण आंसुओं का है। पहले चरण के बाद हम एक नई अवस्था में आ जाते हैं। लेकिन अपने अंतस के मंदिर तक पहुंचने के लिए हमें कुछ कदम और चलना होगा, क्योंकि हमने पूर्व में उदासी, निराशा, चिंता आदि को खूब दबाया है। उन सभी ने हमें घेरकर हमारे सौंदर्य और आनंद को नष्ट कर दिया है।

प्राचीन मंगोलिया में एक पुरानी धारणा थी कि हर जन्म में हम पीड़ा को दबाते हैं, लेकिन दबाने के बावजूद मन में पीड़ा बनी ही रहती है। यदि हम अपने भीतर झांकते हैं, तो हमें हंसी और आंसू दोनों मिलते हैं। इसलिए कई बार हंसने के बाद आंसू भी हमारे साथ-साथ आने लगते हैं। जब कोई व्यक्ति अपनी अंतरात्मा में झांक कर देखता है, तो वह पाता है कि पहली तह हंसी की है, लेकिन दूसरी तह पीड़ा की, आंसुओं की है। सात दिन तक हम बिना कारण के ही स्वयं रोएं, चीखें। हमें उन्हें रोकना नहीं चाहिए। जब भी हमें ऐसा लगे कि वे निकल नहीं पा रहे हैं, तो हमें 'या-बू' कहना चाहिए। ये शुद्ध ध्वनियां हैं, जो हमारी आंखों में न केवल आंसू लाती हैं, बल्कि हमें पूरी तरह स्वच्छ कर देती हैं, ताकि हम फिर से एक निर्दोष बच्चे बन सकें।

मौन

तीसरा चरण है मौन हो जाना, जो हमारी हंसी और आंसुओं का साक्षी बनता है। ध्यान का यह चरण हंसी और आंसुओं से हमें मुक्ति दिला देता है। सात दिनों तक लगातार हमें केवल मौन रहना चाहिए और स्वयं में हो रहे परिवर्तनों का अनुभव करना चाहिए।

ध्यान की इस विधि में हमारे भीतर की दो परतों को तोड़ा जाता है। दरअसल, हमारी हंसी और आंसुओं को दबाया गया है। यदि हम इन दोनों परतों से मुक्ति पा लेते हैं, तो इसका मतलब है कि हमने स्वयं को खोज लिया। या-हू या या-बू शब्दों का कोई अर्थ नहीं है। ये मात्र विधियां हैं, ध्वनियां हैं, जो अंतस-सत्ता में प्रवेश करने के लिए प्रयोग में लाई जाती हैं।

रोना, हंसना हमारे शरीर के लिए स्वास्थ्यप्रद हैं। वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि ये तीनों प्रक्रियाएं केवल शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि मानसिक रूप से भी लाभकारी हैं। ये चीजें हमारे चित्त को स्वस्थ रखने में मदद करती हैं। आंसू हमारे लिए औषधि की तरह काम करते हैं। रोने पर एक रसायन निकलता है, जो हमारी आंखों को साफ करता है और हमारी दृष्टि बेहतर होती है। जहां एक ओर आंसू हमारे भीतर छिपी सारी पीड़ा को बाहर निकाल देते हैं, तो दूसरी ओर हंसी हमें आनंद के सागर में डुबोती है। यदि हम एक बार इस कला को सीख जाते हैं, तो हमारा मन बिल्कुल शांत हो जाता है। हमें गुलाब के फूलों जैसी ताजगी, सुवास और सौंदर्य मिलने लगता है। ध्यान की इस विधि को मिस्टिक रोज-रहस्यदर्शी गुलाब कहा गया है। जब हमारी सभी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं, तो हमारे प्राण गुलाब की पंखुडि़यों की तरह खिल उठते हैं और हमारा मन मंदिर सुवासित होने लगता है।

ओशो

सभी के हैं ईश्वर

रामानंद जयंती पर विशेष

जाति-पाति पूछे नहिं कोई।

हरि को भजै सो हरि का होई ।।

इन पंक्तियों को सामाजिक भेदभाव के खिलाफ कहा है स्वामी रामानंदाचार्य ने। आदि जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य पहले आचार्य हैं, जिनका जन्म उत्तर भारत में हुआ। भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के विकास में उनके विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनका जन्म लगभग सात सौ नौ वर्ष पूर्व माना जाता है।

रामानंदजी के पिता का नाम पुण्य शर्मा तथा माता का नाम सुशीला देवी था। आठ वर्ष की उम्र में उपनयन संस्कार होने के बाद उन्होंने वाराणसी पंच गंगाघाट के स्वामी राघवानंदाचार्य से दीक्षा प्राप्त की। तपस्या तथा ज्ञानार्जन के बाद बड़े-बड़े साधु तथा विद्वान उनके पास जटिल प्रश्नों के जवाब ढूंढ़ने आने लगे। उनके प्रयासों से ही बादशाह गयासुद्दीन तुगलक के अत्याचार बंद हुए और लोगों ने धार्मिक उत्सवों में भाग लेना शुरू किया। उन्हें उत्तर भारत में आधुनिक भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाले के रूप में जाना जाता है। संत कबीरदास, संत धन्ना, संत रविदास, पद्मावती और संत सुरसरी उनके प्रमुख शिष्यों में थे। इनमें कबीर दास और रविदास ने आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित कीे। उन दोनों ने निर्गुण राम की उपासना की। स्वामी रामानंद ऐसे संत थे, जिनकी छाया तले सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत-उपासक विश्राम पाते थे। जब समाज में कटुता और वैमनस्य का भाव भरा हुआ था, वैसे समय में स्वामी रामानंद ने ईश्वर की भक्ति का मार्ग सभी के लिए खोलने का नारा दिया। उन्होंने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देश भर की यात्राएं कीं।

मदन मोहन पांडेय

-------------

उपासना स्थलों का महत्व

स्लग : यथार्थ गीता

मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि प्रार्थना स्थलियां हैं। प्रत्येक ग्राम-नगर, घर-घर जाकर कोई महापुरुष सत्य का प्रचार नहीं कर सकता। पूर्वकाल में महापुरुषों ने शिवलिंग की स्थापना कर दी। लिंग का अर्थ है चिह्न। वह ईश्वर एक है। वह ज्योतिर्मय है। उसी एक की शरण जाओ। शिवलिंग का अभिप्राय इतना ही है। जो भी महापुरुष ज्योतिर्मय परमात्मा की उपलब्धि वाले थे, उनका शरीर छूटा तो भक्तों ने उनकी स्मृति में एक शिवलिंग स्थापित कर दिया। उन महापुरुष का नाम भी उससे जोड़ दिया। ज्योतिर्लिगों ने क्रमश: मंदिरों का रूप ले लिया। जो महापुरुष चले गए, मंदिर उनके पीछे श्रद्धालु भक्तों द्वारा संजोई हुई स्मृति है। मंदिरों में अनंतकाल से ईश्वर की उपलब्धि वाले कैवल्य पद प्राप्त तत्वदर्शी महापुरुषों की प्रतिमाएं हैं, उनसे सभी आशीर्वाद लेते हैं। वे हमारे प्रेरणा-स्रोत हैं। इन स्मारकों में यदि यह नहीं बताया जाता कि किस महापुरुष की प्रतिमा है, उन्होंने क्या संदेश दिया, तो उस मंदिर का दुरुपयोग है। यदि वहां गीतोक्त एक परमात्मा का संदेश दिया जाता है, परमात्मा को प्राप्त करने की गोतोक्त विधि बताई जाती है, तो मंदिर का सदुपयोग है। मंदिर खुली पुस्तकें हैं, श्रद्धा के केंद्र हैं। गीता का प्रसारण तो प्रत्येक मंदिर से होना ही चाहिए।

परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद कृत श्रीमद्भागवत्गीता भाष्य यथार्थ गीता से साभार

सहयोगी से मिली प्रेरणा

स्लग : अंतर्मन की आवाज

विनोबा भावे के अनुसार, कभी-कभार आप लगातार बोलते और दूसरों की बात सुनते रहते हैं, लेकिन वे बोलअनसुने ही रह जाते हैं। उनका जरा भी प्रभाव आप पर नहीं पड़ता है। वहीं जब आप मौन होते हैं, तो दूसरों के भावों की अभिव्यक्ति बड़ी आसानी से समझ लेते हैं। ठीक ऐसा ही हमारे साथ हुआ। ऑफिस में अक्सर मैं बिना आगे-पीछे सोचे कुछ भी बोल दिया करता था। इसका परिणाम यह होता कि मेरी बातों में नमक-मसाला मिलाकर दूसरों के सामने परोसा जाता। इससे लोगों की मेरे प्रति दुर्भावना बढ़ने लगी। एक दिन जैसे ही मैं कुछ बोलने वाला था कि मेरे सहकर्मी ने अपनी आंखों से कुछ इस तरह इशारा किया कि मैं चुप हो गया। बाद में लोगों के नहीं रहने पर उसने बड़े ही अच्छे तरीके से मुझे समझाने की कोशिश की। मैंने जिंदगी भर के लिए उनकी बात गांठ बांध ली..

-नीरज, प्रतापगढ़

यदि आपके पास भी ऐसे अनुभव हैं, तो 250 शब्दों में लिख भेजिए। चुने गए अनुभव को प्रकाशित किया जाएगा।

व्रत त्योहार

19 जनवरी : श्री रामानंदाचार्य जयंती।

22 जनवरी : रवि दशमी

23 जनवरी : षट्तिला एकादशी व्रत।

24 जनवरी : तिल द्वादशी

-------------


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.