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'हाशिये' पर 'होरी' अब भी हाजिर है 'हुजूर'

विवेक राव, मेरठ होरी-धनिया हों या फिर हीरा-मोती। घीसू-माधव हों या हामिद। गोबर हों या जालपा, सच तो

By Edited By: Published: Fri, 31 Jul 2015 02:04 AM (IST)Updated: Fri, 31 Jul 2015 02:04 AM (IST)
'हाशिये' पर 'होरी' अब भी हाजिर है 'हुजूर'

विवेक राव, मेरठ

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होरी-धनिया हों या फिर हीरा-मोती। घीसू-माधव हों या हामिद। गोबर हों या जालपा, सच तो यह है कि महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों के सैकड़ों पात्र समाज में आज भी जिंदा हैं। उनका चेहरा मार खाया हुआ लगता है। अभावों में किसी का गाल झुर्रियों की झोली बन जाता है तो शोषण की जंगी मशीन किसी के पेट की अंतड़ी को पीठ से चिपका देती है।

पांवों में फटी बिवाइयां, गरीबी में झख मारती जिंदगानी, सूदखोरों के चंगुल में छटपटाहट कम नहीं हुई है। समय ने भले करवट ली हो। लेकिन गोदान का नायक होरी समाज में हाशिये पर अभी भी हाजिर है। उसकी मुश्किलें कम कहां हुईं। व्यवस्था की चक्की में पिसकर अंधेरा अरमानों के खाली कनस्तर में गिर ही तो रहा है।

31 जुलाई 1880 को बनारस के लमही गांव जन्मे प्रेमचंद ने 1901 में उपन्यास लिखना शुरू किया। वर्ष 1907 में कहानी लिखे। प्रेमचंद ने उस समय अंग्रेजी राज में गरीब, अमीर, युवा, किसान, अनपढ़, उच्च शिक्षित हर किरदार पर अपनी लेखनी चलाई। अंग्रेजी राज में लिखी उनकी कहानियां, कथाएं, उपन्यास आज भी युवाओं और आम जन को झकझोरती हैं। क‌र्इ्र महान हस्तियों को हम आज प्रासंगिक मानकर गर्व महसूस करते हैं, लेकिन प्रेमचंद की कहानियों को आज प्रासंगिक कहने पर हमें अच्छा नहीं लगता। जबकि प्रेमचंद ने जिस होरी को कर्ज से तिल-तिल कर मरते हुए दिखाया था, आज वह जिंदा है।

ओलावृष्टि के बाद बबार्द और कर्ज के बोझ से कराहते हुए मेरठ जनपद में ही जाने कितने किसानों ने मौत को गले लगा लिया। हताश युवा आज भी बेरोजगारी का दंश झेलने को विवश हैं। चौ. चरण सिंह विश्वविद्यालय में ¨हदी विभाग के प्रो. नवीन चंद्र लोहनी कहते हैं कि कथा सम्राट प्रेमचंद ने जिस अभिजात्य वर्ग के शोषण को उस समय दिखाया था, वह वर्ग आज भी गरीबों का खून चूस रहा है। आज प्रेमचंद को पढ़ने के बाद उनकी बातें काल्पनिक नहीं वास्तविक लगती हैं। आज की समस्याओं पर भी चोट करती हैं। यहीं कारण है कि प्रेमचंद की लिखी सभी किताबें आज हर वर्ग के लोग पढ़ रहे हैं।

प्रेमचंद के कथाओं का क्रेज बरकरार

प्रेमचंद को पढ़ने और उन्हें पसंद करने वाले पाठकों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, कि शहर में सड़क के बुक स्टाल से लेकर एयर कंडीशंड बुकशाप पर उपलब्ध हैं। प्रेमचंद की कहानियों में ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, नमक का दारोगा सबसे अधिक पसंद की जा रही हैं। निबंस आउटलेट की संचालिका अलका शर्मा बताती हैं कि टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल के जमाने में साहित्य की किताबों को पढ़ने वाले भले ही कम हुए हों, प्रेमचंद के साहित्य पढ़ने वाले कम नहीं हैं।

प्राइमरी से लेकर पीएचडी तक

प्रेमचंद का अधिकांश समय बनारस, लखनऊ और कुछ समय गोरखपुर में बीता, अंतिम समय में 1933-34 मुंबई के फिल्मी दुनियां में समय बीता। आठ अक्टूबर 1936 को उनका निधन हुआ। सौ साल पहले लिखे उनके साहित्य को आज प्राइमरी से लेकर पीएचडी तक के स्टूडेंट पढ़ते हैं।


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