शिक्षा की 'खान' कप्तान अंकल
अमित तिवारी, मेरठ खुद को मशाल बनाकर समाज को रोशन करने का जज्बा भला कितनों में होता है, लेकिन जिनमे
अमित तिवारी, मेरठ
खुद को मशाल बनाकर समाज को रोशन करने का जज्बा भला कितनों में होता है, लेकिन जिनमें होता है वो हमेशा के लिए प्रकाश पुंज बन जाते हैं। खुद जलकर दूसरों को रोशन करने का यह मिसाल कायम किया है डॉ. इफ्तेखार अली खान ने। आज वह एक, दो नहीं बल्कि साढ़े तीन सौ बच्चों के ऐसे कप्तान अंकल बन चुके हैं, जिन्होंने समाज को जगाकर पढ़ाने और आगे बढ़ाने की मुहिम छेड़ रखी है। इस मुहिम की जीवंत रखने के लिए उन्होंने अपना घर बसाने की बजाय समाज को ही अपना घर बना लिया। सामाजिक, धार्मिक व पारिवारिक विरोध भी उनके उठते कदमों को बोझिल नहीं कर सके। समाज के पिछड़े व गरीब तबके के युवाओं को समाज की मुख्य धारा में बनाए रखने के लिए उन्हें शिक्षित करना बेहद आवश्यक है। इस बात को गांठ बांधकर उन्होंने जीवन में उतार लिया है।
दिखने लगा 'एफर्ट'
1989 सेएक छोटे से कमरे में समाज के गरीब बच्चों को शिक्षित करते हुए कप्तान अंकल अर्थात डा. खान ने अब ढाई वर्ष पहले शहर के शास्त्रीनगर इलाके में बस्ती की बालिकाओं के लिए 'एफर्ट' नामक एकेडमी खोली। वर्तमान में इस एकेडमी में कोई साढ़े तीन सौ बालक-बालिकाओं को विभिन्न तरह की शिक्षा दी जा रही है। यहां हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, गणित, विज्ञान आदि विषयों के साथ ही बालिकाओं को सिलाई, कढ़ाई, श्रृंगार, खिलौने बनाना आदि का प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। एक छोटी सी जगह में इतने सारे बच्चों की शिक्षा सुचारू रखने में कोई बाधा न आए, इसके लिए वह बच्चों को पालियों में बुलाते हैं।
बढ़ता गया कारवां
शुरुआती विरोध झेलने के बाद 70 यूपी एनसीसी वाहिनी में कप्तान और फैज-ए-आम इंटर कालेज में रसायन विभागाध्यक्ष डा. खान को समाज को शिक्षित करने के इस सफर में सहयोगी शिक्षकों के साथ ही एनसीसी निदेशालय का भी भरपूर सहयोग मिला। शिक्षक के रूप में उनकी नौकरी वर्ष 1995 में लगी। और बाहर जरूरतमंद बच्चों को नि:शुल्क कोचिंग देने में जुटे हैं। डा. खान के इन्हीं प्रयासों को देखते हुए एनसीसी निदेशालय ने इन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान करने के साथ ही 'वन मैन एनजीओ' के खिताब से भी नवाजा है।
अब तक नहीं ली मदद
बच्चों की पढ़ाई व अच्छी किताबें मुहैया कराने में डॉ. खान प्रति माह अपने वेतन का 80 से 85 प्रतिशत खर्च करते हैं। छोटे से कमरे को एक मकान का रूप भी देने में लगे हैं, जिससे बालिकाओं को सुरिक्षत माहौल में बेहतर शिक्षा दी जा सके। अब तक किसी से कोई आर्थिक मदद नहीं ली है, लेकिन इन व्यवस्थाओं को एकजुट करने के लिए कई बार बैंकों से लोन जरूर लेने पड़े हैं। अब ये बच्चों को उच्च शिक्षा की तैयारी भी कराना चाहते हैं, जिसके लिए आने वाले दिनों में मदद की जरूरत पड़ सकती है।
शिक्षा ही धर्म-कर्म है
डा. आइए खान का कहना है कि एकेडमी में पढ़ने वाले बच्चों के नाम नहीं लिखे जाते हैं। यहां का धर्म शिक्षा है और इन युवाओं को शिक्षित करना ही मेरा कर्म है। वे कहते हैं कि इन्हें शिक्षित करने की खुशी ने ही उन्हें अब तक बीमार नहीं पड़ने दिया और जब तक शरीर में जान रहेगी वे इस कर्म हो ही धर्म मानकर इसी रास्ते आगे बढ़ते रहेंगे। वह कहते हैं उन्हें सबसे ज्यादा खुशी तब मिलती है, जब वह अपने पढ़ाए किसी बच्चे को सफलता की ऊंचाइयां चढ़ते देखते हैं।