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संस्कारों की पाठशाला, नैतिकता का पाठ

संवाद सूत्र, मैनपुरी : 90 साल की उम्र में शिक्षा के प्रति उनका जज्बा जवानों को मात देता है। 40 साल त

By Edited By: Published: Fri, 19 Dec 2014 06:53 PM (IST)Updated: Fri, 19 Dec 2014 06:53 PM (IST)
संस्कारों की पाठशाला, नैतिकता का पाठ

संवाद सूत्र, मैनपुरी : 90 साल की उम्र में शिक्षा के प्रति उनका जज्बा जवानों को मात देता है। 40 साल तक सरकारी विद्यालय में शिक्षण करने के बाद भी उनका सफर रुका नहीं है। सेवानिवृत्ति के 25 साल बाद भी वो नियमित रूप से न केवल अध्यापन कर रहे हैं। बल्कि जरूरतमंदों को अपनी पेंशन से पाठ्य सामग्री भी उपलब्ध कराते हैं। शिक्षा का यह दूत है बेवर कस्बे के मुहल्ला ब्रह्मनान निवासी रामबाबू चतुर्वेदी।

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जिस उम्र में लोग आराम से घर में बैठना पसंद करते हैं उस उम्र में भी रामबाबू चतुर्वेदी बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ ही नैतिकता और संस्कारों का पाठ पढ़ा रहे हैं। वो 40 साल की सरकारी सेवा के बाद वर्ष 1989 में जूनियर हाईस्कूल कौआटांडा से शिक्षक के रूप में सेवानिवृत्त हुए। जब स्कूल में पढ़ाते थे तो नियमित स्कूल जाना इनकी दिनचर्या था। उद्देश्य सिर्फ एक ही थी कि किसी तरह बच्चों को पढ़ाकर नेक इंसान बना दें। उनकी इस लगन को देखकर ही वर्ष 1984 में उन्हें राज्यपाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। समाज में शिक्षा का दीप जलाने का संकल्प पूरा करने के लिए रामबाबू चतुर्वेदी सेवानिवृत्ति के बाद भी प्राइमरी से लेकर हाईस्कूल तक के बच्चों को घर में निश्शुल्क पढ़ाते हैं। अलग-अलग बैच में चालीस बच्चे रोजाना उनकी कक्षा में ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। रामबाबू कहते हैं कि बच्चे शिक्षित होकर समाज को नई दिशा देंगे। यही मेरी फीस है। जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाने के साथ ही वह अपनी पेंशन के रुपयों से किताबें और अन्य जरूरी सामान तक खरीद कर देते हैं।

लगती योग की कक्षा

सुबह रामबाबू चतुर्वेदी अपने ही घर के बाहर बच्चों को योग की शिक्षा देते हैं। बड़ी संख्या में बच्चे उनकी पाठशाला में शामिल होकर योग सीखते हैं। कहते हैं कि आजकल के बच्चों में धैर्य नहीं है। इनको संस्कारों की जरूरत है। उन्हें ये भी नहीं पता कि समाज में कैसा बर्ताव करना चाहिए। लिहाजा वो प्रेरक प्रसंग और कहानियों के जरिए इसकी शिक्षा देते हैं।

बच्चों के सुख में भूले अपना 'दर्द'

बेवर: रामबाबू चतुर्वेदी के दो बेटे थे। लेकिन हंसते-खेलते परिवार को किसी की नजर लग गई। वर्ष 1980 में छोटे बेटे अशोक कुमार की बीमारी के चलते मौत हो गई। वो विभाग में कर्मचारी थे। जवान बेटे की मौत का गम बूढ़े बाप ने किसी तरह बर्दाश्त किया। एक बार फिर परिवार की खुशियों पर ग्रहण लगा। दिल्ली में रहकर व्यापार कर रहे बड़े बेटे राकेश कुमार की वर्ष 1993 में सड़क हादसे में मौत हो गई। दो जवान बेटों की मौत ने रामबाबू को पूरी तरह से तोड़ दिया। किसी तरह बड़े बेटे की बहू निर्मला, पत्नी और खुद को उन्होंने संभाला। लेकिन करीब पांच साल पहले पत्नी का भी निधन हो गया। अब घर में बहू और खुद बुजुर्ग रामबाबू हैं। सुबह -शाम बच्चों की कक्षा में ही अपने गम भुलाने की कोशिश करते हैं। कहते हैं कि मेरे लिए मेरे बच्चे ही सब कुछ हैं। ये सब पढ़ लिखकर कुछ बन गए तो मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा।


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