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निर्बल के बलराम

रायबरेली के एक गांव में प्रसव के मुकम्मल इंतजाम के अभाव में गले में नाल फंसने की वजह से पैदाइश के वक्त प्रमस्तिष्क पक्षाघात (सेरिब्रल पैलसी) का शिकार होने वाले अमिताभ मेहरोत्रा ने बचपन में ही ठान लिया था कि उन्हें अपने जैसे नि:शक्तों का संबल बनना है।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Sat, 20 Dec 2014 10:57 AM (IST)Updated: Sat, 20 Dec 2014 11:01 AM (IST)
निर्बल के बलराम

लखनऊ (राजीव दीक्षित)। रायबरेली के एक गांव में प्रसव के मुकम्मल इंतजाम के अभाव में गले में नाल फंसने की वजह से पैदाइश के वक्त प्रमस्तिष्क पक्षाघात (सेरिब्रल पैलसी) का शिकार होने वाले अमिताभ मेहरोत्रा ने बचपन में ही ठान लिया था कि उन्हें अपने जैसे नि:शक्तों का संबल बनना है। लखनऊ के एक प्रतिष्ठित स्कूल के प्रधानाचार्य ने उनके हाथों में कंपन, चाल में डगमगाहट व जुबान की लडख़ड़ाहट की वजह से उन्हें प्रवेश देने से मना कर दिया था। लिखने में कठिनाई महसूस करने पर जब सहायक की मदद से हाईस्कूल की परीक्षा दे रहे थे तो कक्ष निरीक्षक परीक्षा की अवधि में उनसे उनकी बीमारी के बारे में ऊटपटांग सवाल किया करते थे। इन सबसे हतोत्साहित होने की बजाय उनका इरादा फौलादी होता गया।

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माता-पिता की हौसलाअफजाई से उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से बीकॉम और मुंबई के प्रतिष्ठित टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज से सोशल वर्क में परास्नातक किया। इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद विकलांग केंद्र में तीन माह और फिर जमशेदपुर में टाटा स्टील रूरल डेवलपमेंट सोसाइटी में सात साल काम किया लेकिन 'निर्बल के बलराम' बनने की अकुलाहट बनी रही। नौकरी छोड़कर कुछ शुभचिंतकों की मदद से उन्होंने 1996 में लखनऊ में स्कूल फार पोटेंशियल एडवांसमेंट एंड डीस्टोरेशन आफ कान्फिडेंस (स्पार्क इंडिया) की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से अमिताभ ने लखनऊ के खदरा मोहल्ले की मलिन बस्ती में नि:शक्तों के लिए सामुदायिकता आधारित पुनर्वास कार्यक्रम शुरू किया। इस कार्यक्रम के तहत संस्था नि:शक्त बच्चों की मदद के साथ उनके अभिभावकों और जनसामान्य को विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की खास जरूरतों के बारे में जागरूक करती है। अन्य धमार्थ संस्थाओं की मदद से नि:शक्त बच्चों की फीजियोथेरेपी कराती है। सरकारी तंत्र को नि:शक्तों के प्रति संवेदनशील बनाकर उसे उनके लिए नीतियां बनाने में मदद करती है। इस काम में अमिताभ की मदद एक्शन एड जैसी संस्था ने भी की। दूसरे वर्ष इस कार्यक्रम को उन्होंने राजधानी के नबीउल्लाह रोड की मलिन बस्ती में भी शुरू किया और तीसरे साल लखनऊ की सरहद लांघकर पड़ोस के बाराबंकी जिले के देवां क्षेत्र में भी उनकी संस्था ने नि:शक्तजनों के लिए सेवाएं देनी शुरू कर दी।

वर्ष 2003 में अमिताभ ने खदरा इलाके में ज्योति किरण स्कूल की स्थापना कर अपने बचपन के सपने को साकार किया। दस वर्षों तक खदरा में संचालित यह स्कूल को 2013 में राजधानी के मडिय़ांव इलाके में स्थानांतरित हुआ। दो नि:शक्त बच्चों से शुरू हुए इस स्कूल में अब साठ बच्चे पंजीकृत हैं। स्कूल में सेरिब्रल पैलसी से ग्रस्त बच्चों को उनकी उम्र और जरूरत के हिसाब से चार ब्लॉक में बांटकर शिक्षा दी जाती है। बच्चों की फिजियोथेरेपी के अलावा उन्हें उनके दैनंदिन जीवन के लिए उपयोगी उपकरण भी दिये जाते हैं। 'दो सौ नि:शक्त बच्चे स्कूल में दाखिले की बाट जोह रहे हैं लेकिन स्थान अभाव के कारण हम उन्हें प्रवेश नहीं दे पा रहे,Ó अफसोसनाक लहजे में कहते हैं अभिताभ। स्पार्क इंडिया के कामकाज से प्रभावित होकर ब्रिटेन की पूअरेस्ट एरिया सिविल सोसाइटी नामक संस्था ने उसे उप्र में नि:शक्तों के कौशल विकास की जिम्मेदारी सौंपी है। इसके तहत स्पार्क इंडिया ने हाल ही में राजधानी के शकुंतला मिश्रा पुनर्वास विश्वविद्यालय में 40 नि:शक्तों के पहले बैच को ट्रेनिंग देकर उन्हें नौकरी दिलाने में मदद की है। कैसा लगता है अब सब के सवाल के जवाब में अमिताभ हंसकर कहते हैं 'नि:शक्तों के जीवन में चमक (स्पार्क) लाने से बड़ा कोई सुख नहीं।


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