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भूकंप की प्री-वेब आने पर करें सुरक्षा सरफेस वेब में जान का जोखिम

आप धरती दहलाने वाली घटनाओं का इतिहास खंगालें, पशु-पक्षियों की हरकतों को समझें और इंटरनेट पर धरती के भीतर की हलचल का अहसास करें लेकिन भूकंप के पूर्वानुमान के सवाल का जवाब नहीं मिलेगा। पूरी दुनिया में कहीं ऐसी सटीक तकनीक नहीं है जिससे इस आपदा का पूर्वाभास कर लोगों

By Nawal MishraEdited By: Published: Sun, 26 Apr 2015 08:55 PM (IST)Updated: Sun, 26 Apr 2015 10:09 PM (IST)
भूकंप की प्री-वेब आने पर करें सुरक्षा सरफेस वेब में जान का जोखिम

लखनऊ। आप धरती दहलाने वाली घटनाओं का इतिहास खंगालें, पशु-पक्षियों की हरकतों को समझें और इंटरनेट पर धरती के भीतर की हलचल का अहसास करें लेकिन भूकंप के पूर्वानुमान के सवाल का जवाब नहीं मिलेगा। पूरी दुनिया में कहीं ऐसी सटीक तकनीक नहीं है जिससे इस आपदा का पूर्वाभास कर लोगों को सावधान किया जा सके। सब कुछ अनुमान तक ही सीमित है। फिलहाल सावधानी के लिए भूकंप की प्री-वेब आने पर संभल जाएं। खुद को सुरक्षित कर लें वरना सरफेस वेब आने पर जान बचाना मुश्किल हो सकता है।

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भूकंप की प्लेटेटॉनिक थ्योरी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के भू विज्ञान शोध छात्र अच्युतानंद पांडेय व शशिकांत यादव ने बताया कि धरती में प्लेटों का ट्रांसफार्म फाल्ट, सब डक्शन और डायवर्जन होता रहता है। इस समय आए भूकंप का कारण सब डक्शन यानी एक प्लेट दूसरी में प्रवेश करने पर हलचल मची है। इसके लिए प्लेट मार्जिन यानी हिमालय के तटवर्ती क्षेत्र में निर्माण करने से बचा जाना चाहिए। भूकंप पर शोध बढ़ाया जाना चाहिए। शोध छात्र शिवम प्रजापति, नुपुर गुप्ता व आदर्श त्रिपाठी कहते हैं कि भूकंप के समय प्री-वेब व सरफेस वेब आती है। इसमें प्री वेब सूचना देने का काम करती है। उस समय लोगों को घर से निकलकर खुले में चले जाना चाहिए जबकि सरफेस वेब भवन आदि का नुकसान करती है। यदि लोग सचेत रहें तो प्री वेब आने पर ही सुरक्षित स्थान पर चले जाएं तो संपत्ति का नुकसान होगा लेकिन उनकी जान जरूर बच जाएगी।

हर 20-25 किमी पर हो सिस्मोमीटर

ऐसे में आपदा में नुकसान कम करने के लिए 'इंटेस्टिव सिस्मेटिव नेटवर्कÓ को लागू करना चाहिए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के भू एवं ग्रहीय विज्ञान के विभागाध्यक्ष प्रो. जेएन त्रिपाठी ने बताया कि यह अद्यतन तकनीक है। इसमें हर 20 से 25 किलोमीटर पर सिस्मोमीटर (भूकंप मापक यंत्र) लगाए जाते हैं। इसकी नियमित मानीटङ्क्षरग होने पर आने वाली आपदा से बचा जा सकता है। सिस्मोमीटर से धरती के अंदर की हर हलचल का पता चल जाता है। इससे जब समय पर आपदा का पता चलेगा तो नुकसान कम होना तय है, क्योंकि आम लोगों तक समय रहते सूचना पहुंच जाएगी। वह यह भी सलाह देते हैं कि बड़े व सरकारी भवनों में नियमित रूप से सेफ जोन भी बनाया जाना चाहिए, ताकि जरूरत पडऩे पर उसमें जाकर लोग बच सकें।

फिर तय हो भूकंप जोखिम का पैमाना

नेपाल में तबाही वाले भूकंप की ताजनगरी आगरा में तीव्रता रिक्टर स्केल पर 5.1 और 4.5 आई है। इतनी तीव्रता बताती है कि आगरा का सेस्मिक जोन बदल रहा है। यह जोन 3 में है लेकिन अब चार जैसी हालत है। ऐसे में पूरे खतरे पर विचार कर अब विशेषज्ञों संग मंथन की तैयारी है। इसके बाद सेस्मिक जोन दोबारा निर्धारित कराने के लिए प्रस्ताव भेजने की तैयारी हो रही है। भारत में भूकंप के लिहाज से क्षेत्रों की संवदेनशीलता जानने के लिए वर्ष 2007 में सेस्मिक जोन का निर्धारण किया था। इसमें क्षेत्रों की संवदेनशीलता में कुछ परिवर्तन सामने आया था। उस वक्त आगरा को सेस्मिक जोन तीन में रखा गया था। विशेषज्ञों के मुताबिक भारत में इंडियन प्लेट और यूरो-एशियन प्लेट के बीच में हिमालय के दक्षिण की ओर जमीन के अंदर ग्रेट बाउंड्री फॉल्ट है जो भूकंप की वजह बनता है। इससे सर्वाधिक जोखिम दक्षिण भारत में है। आगरा के पड़ोसी भरतपुर और माउंट आबू में भी जमीन के अंदर बाउंड्री फॉल्ट स्थित है। इस फॉल्ट से भूकंप की स्थिति बनी तो आगरा भारी तबाही वाला क्षेत्र बनेगा।

शनिवार को भूकंप की तीव्रता 5.1 और रविवार को रिक्टर स्केल पर 4.5 बताई गई। विशेषज्ञों के मुताबिक इतनी तीव्रता के भूकंप का मतलब आगरा जोन-4 की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में वे सेस्मिक जोन के पुनर्निधारण की जरूरत जता रहे हैं, जिससे उसी हिसाब से सुरक्षात्मक उपायों पर काम हो।

सेस्मिक जोन

भूकंप जमीन के नीचे बनी प्लेट्स के आपस में रगडऩे के कारण आता है। इन प्लेट्स के बीच वह स्थल जहां रगड़ से भूकंप आने का खतरा ज्यादा होता है, उसे फॉल्ट लाइन कहा जाता है। इसी फॉल्ट लाइन के हिसाब से यह तय होता है कि किस क्षेत्र में खतरा कितना है। फॉल्ट लाइन के पूरे दायरे को सेस्मिक जोन कहा जाता है। देश ऐसे पांच जोन निर्धारित हैं। इनमें पांचवें जोन को सबसे ज्यादा खतरनाक माना जाता है। वहीं जोन वन को सुरक्षित जोन माना जाता है।

-जमीन के अंदर होने वाली प्रतिक्रियाओं से आउट गोइंग लांग वे रेडिएशन (ओएलआर) में परिवर्तन होता है। यह बदलाव विद्युत चुंबकीय तरंगों में आता है।

-सूर्य से जितना प्रकाश पृथ्वी पर आता है उतना रेडिएशन वापस अंतरिक्ष में जाता है। रेडिएशन बढ़ा होने पर भौतिकविद् पता लगा लेते हैं कि रेडिएशन की बढ़ी मात्रा पाताल में गैसों में उत्र्सजन के चलते है।

-भूकंप से पहले वनस्पतियों में जो क्रियाएं होती हैं, उनसे भी संकेत मिलते हैं। विशेषकर बरगद और पीपल जैसे वृक्ष जिनकी जड़ें जमीन में गहरी होती हैं। इन वृक्षों की कुछ क्रियाएं जैसे उनके पत्तों का रंग आदि में बदलाव आने लगता है।

-समुद्र का पानी एकदम से ठंडा हो जाता है। इसका कारण यह है कि पाताल में चल रही उथल-पुथल से समुद्र तल ठंडा पानी सतह के ऊपर आ जाता है। जापान में आए विनाशकारी भूकंप से पहले वहां के समुद्र का पानी एकदम ठंडा हो गया था।

-भूकंप के संकेतों का पशु-पक्षी भी सबसे पहले समझते हैं। वह तरंगों में होने वाले बदलाव को महसूस करके बेचैन हो जाते हैं। उनकी गतिविधि बदल जाती है।


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