फिराक गोरखपुरी जयंती पर विशेष : लोग हमें ढूंढेंगे सदियों के बाद
जो शख्स अपने कद्रदान से ये कहे कि जब आप अपने नाम के साथ दारूवाला भी लिखते हैं तो आप इलाहाबाद पहुंच कर जिसे भी अपना नाम बताएंगे वो आपको मेरे ठिकाने पर ले आएगा। जो शख्स इन्श्योरेंस एजेंट को डांटते हुए ये बता रहा हो कि मैं कोई मच्छर
कल उर्दू के मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी की जयंती थी इस अवसर पर मशहूर शायर मुनव्वर राना ने उनके बारे में बहुत सी बातें जागरण के साथ साझा की।
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं ! तुझे ऐ जिंदगी.! हम दूर से पहचान लेते हैं !!
मेरी नजरें भी ऐसे कातिलों का जान-ओ-ईमान हैं निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं!!
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में,हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं!!
खुद अपना फैसला भी इश्क में काफी नहीं होता,उसे भी कैसे कर गुजरें, जो दिल में ठान लेते हैं!!
जिसे सूरत बताते हैं, पता देती हैं सीरत का,इबारत देख के जिस तरह मांजी जान लेते हैं!!
तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फत में,हम अपने सर तेरा ऐ दोस्त हर अहसान लेते हैं!!
हमारी हर नजर तुझसे सौगंध खाती है,तो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं!!
फिराक अक्सर भेष बदल कर मिलता है कोई काफिऱ,कभी हम जान लेते हैं, कभी पहचान लेते हैं!!
मुनव्वर राना । जो शख्स अपने कद्रदान से ये कहे कि जब आप अपने नाम के साथ दारूवाला भी लिखते हैं तो आप इलाहाबाद पहुंच कर जिसे भी अपना नाम बताएंगे वो आपको मेरे ठिकाने पर ले आएगा। जो शख्स इन्श्योरेंस एजेंट को डांटते हुए ये बता रहा हो कि मैं कोई मच्छर या मक्खी नहीं हूं, जिसके इन्तिकाल पर नगरपालिकाएं सनद-ए-मर्ग (डेथ सर्टिफिकेट) जारी करती हैं, मैं फिऱाक़ हूँ फिऱाक़ !! मैं जिस रोज इस दुनिया को खैराबाद कहूंगा उस दिन चीखते-चीखते रेडियो और अख़बारात के गले बैठ जाएंगे। जिस शख्स ने सारी जिंदगी दस्तख़त की जगह फिऱाक़ लिखा हो सिर्फ फिऱाक़, न आगे कुछ न पीछे कुछ, न ये डिग्री न वो डिग्री, न ये अवार्ड न वो सम्मान! उसकी ख़ुदएतिमादी (आत्मविश्वास) की क़सम तो ईमानदार दुश्मनों को भी फ़ौरन खा लेनी चाहिए। जिस शख़्स ने चैंबर आफ कॉमर्स की मीटिंग में बा-बांग-ए-देहल कह दिया हो कि आप लोग उर्दू इसलिए पढ़ लें कि अफ़सर बनने के बाद अफ़सर नजऱ भी आएं। इस बेबाक़ शायर, क़लन्दर सिफ़त इंसान, साफग़ोई के पैरोकार और उर्दू दर्वेशाना रविश (बेफिक्री)के नुमाइंदे को उर्दू वाले ही इतनी जल्द फऱामोश कर देंगें, इस बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं होगा। शायद ऐवान-ए-अदब में अखलाक़ीयात (तहज़ीब) का जाने अनजाने में एक बड़ा क़त्ल हो गया, शायद ओहदों और इक़तिदार के बेशक़ीमती रेशमी क़ालीन पर अपनी अना(अहंकार) की खड़ाऊ पहन कर उसका बे-नियाज़ाना (बेपरवाही) गुजऱ जाने का अमल उसके हम-असर शोअरा, नाक़ीदीन-ए-अदब (आलोचक), और अरबाब-ए-इक़तिदार के नौनिहालों को भी पसंद नहीं आया। अपनी पुर-सहर शख़्िसयत और बे-इंतिहा तालीमी लियाक़त के ज़रिए कुछ भी हासिल कर लेने वाले फिऱाक़ साहब मीर केबाद दूसरे ऐसे शायर थे जिन्होंने अरबाब-ए-इक़तिदार और मस्लिहतों के दरबार में में कभी सजदा करने कि कोशिश नहीं की। हकीकत में फिऱाक़ साहब उर्दू वालों की तंगनजऱी और हिंदी वालों के मुतअस्सिबाना रवय्ये (पक्षपातपूर्ण रवैये) के शिकार हो गए। वैसे तो फिऱाक़ साहब की इल्मी, अदबी और शेअरी सलाहियत पर तनक़ीद (आलोचना) करने के लिए जितने इल्म और दानिशमंदी कि ज़रूरत थी, उतना इल्म ही फिऱाक़ साहब के अलावा पूरे र्बे-सगीर(एशिया) में किसी और के पास नहीं था। फिऱाक़ साहब किसी समझौते, किसी शरीफ़ाना मसलिहत और किसी मुनाफि़काना डिप्लोमेसी के क़ायल ही नहीं थे, बोलने से कभी चूकते नहीं थे, अदम बेज़ारी के साथ ख़ुदसताई (अपने मुंह मिया मि_)जैसी मोहलिक बीमारी के शिकार थे, अपने बेबाक फि़करों और बेहंगम क़हक़हों से किसी भी महफि़ल के मुंह का मज़ा बिगाड़ देते थे, जिसके नतीजे में उनकी सारी उम्र अदबी अदालत के कटहरे में खड़े खड़े ही गुजऱ गई। यक़ीनन फिऱाक साहब की कई कमजोरियां बहुत ताक़तवर थीं जिनसे वो सारी जि़न्दगी पीछा नहीं छुड़ा सके, लेकिन अब इसको क्या कहा जाए कि अदब का बड़े से बड़ा पारख भी इस मामूली लेकिन ईमानदार सुनार की बराबरी नहीं कर सकता, जो इस्तेमाल-शुदा ज़ेवर का मैल काट कर असली सोने की क़ीमत निकाल लेता है। हिंदुस्तान के पहले वज़ीर-ए-आज़म पं. नेहरू के बे-तकल्लुफ़ दोस्त, हिंदुस्तान के सबसे ताक़तवर वजीर-ए-आज़म ( इंदिरा गांधी) के तकऱीबन हक़ीक़ी चाचा, ऑल इण्डिया कांग्रेस पार्टी के सबसे चहेते शायर और दानिश्वर रघुपति सहाय उर्फ फिऱाक़ गोरखपुरी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के आवंटित मामूली से मकान में मर खप गए, हालांकि उनके एक अदना से इशारे पर इलाहाबाद से ले कर दिल्ली तक में उनके नाम कोठियां आवंटित हो सकती थीं लेकिन खरा शायर कभी अज़मत के चक्कर में नहीं रहा। फिऱाक़ साहब अपनी अलालत (बीमारी) के सिलसिले में काफ़ी दिनों तक दिल्ली के ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टिट्यूट में भर्ती रहे। एक दिन जब उन्हें मालूम हुआ कि इंदिरा गांधी उनकी मिजाज़-पुर्सी के लिए आ रही हैं, तो वो बे-इंतिहा खुश हुए। बे-तरतीब जि़न्दगी और बे-तरतीबी के साथ लिबास का इस्तेमाल करने वाले फिऱाक़ साहब ने रमेश जी को बुला कर कहा कि मुङो लिबास ठीक से पहना कर चादर भी सलीक़े से ओढ़ा दो, आज मुझ से इंदु मिलने आ रही है। गंभीर रूप से बीमार होने और याददाश्त कमजोर होने के बावजूद भी उर्दू तहज़ीब के इस सिपाहसालार को मालूम था कि किसी के सामने कितना बरहना होना चाहिए। अगर दुनिया की किसी दूसरी ज़बान का इतना बड़ा शायर, दार्शनिक और आलिम इस दार-ए-फ़ानी (दुनिया) से कूच करता तो उसके नाम-नामी से कोई शहर बसा दिया जाता, उसके नाम पर शाहराहों, स्टेशनों और स्कूलों के नाम रखे जाते, लेकिन इस मुल्क में बजाए फिऱाक़ साहब की यादगार क़ायम करने के, उनकी ग़ुरबत-ज़दा यादों से यूनिवर्सिटी का मकान भी ख़ाली करा लिया गया। उनका तमाम अदबी सरमाया पहले तो ख़ुर्द-बुर्द होने दिया गया, फिर बची-खुची यादों को मकान ख़ाली कराने के बहाने सड़क पर बिखेर दिया गया। हैरत है कि फिऱाक़ साहब की यादों के सरमाये से यूनिवर्सिटी का मकान ख़ाली करा लिया। कऱीब ही खड़ी हुई हाईकोर्ट की पुर-शिकवा इमारत उस ना-इंसाफ़ी को हाथ बांधे हुए देखती रही। फिराक साहब ने कभी ख्वाब में भी अपने साथ उस नाइंसाफ़ी और इतनी ना-क़दरी के बारे में नहीं सोचा होगा। उनके बाद उर्दू ज़बान के पास अपना कोई भी सच्चा वकील नहीं है, ये मज़लूम एक मुद्दत से मुक़दमे की पैरवी ख़ुद कर रही है। आज भी ये बदनसीब ज़बान हजऱत नूह (अ.) के कबूतरों की तरह ज़मीन की तलाश में भटक रही है, और ज़मींदारी सौंपने को किसी फिराक को तलाश रही है।
परिचय - उर्दू के मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी का जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उनका असली नाम रघुपति सहाय था। वे उर्दू के बहुत ही जाने माने कवि थे। सिविल सर्विस में चुने जाने पर भी उन्होंने उसको ठुकराकर, स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेकर डेढ़ साल जेल में रहे। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के अध्यापक रहे । यहीं पर इन्होंने ग़ुल-ए-नग़मा किताब लिखी जिसके लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला । इसके अलावा रूह-ओ-कय़ानत,नग़मा-नुमा उनके मशहूर कविता संग्रह हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनको राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया था ।