नासिक कुंभ में होगी शंकराचार्य विवाद पटाक्षेप की कोशिश
आदिशंकराचार्य ने मठों को लेकर विवाद को वर्जित माना है। अत: नासिक कुंभ में शंकराचार्य विवाद सुलझाने की कोशिश होगी। उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद में सिविल जज (सीनियर डिवीजन) का फैसला शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के पक्ष में था लेकिन इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दे दी गई है। स्वामी
लखनऊ। आदिशंकराचार्य ने मठों को लेकर विवाद को वर्जित माना है। अत: नासिक कुंभ में शंकराचार्य विवाद सुलझाने की कोशिश होगी। उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद में सिविल जज (सीनियर डिवीजन) का फैसला शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के पक्ष में था लेकिन इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दे दी गई है। स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती की याचिका पर कोर्ट में 14 जुलाई को सुनवाई होगी। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि कहते हैं कि आदिशंकराचार्य रचित महानुशासन संहिता में मठों में टकराव या विग्रह को वर्जित माना गया है। संहिता में साफ-साफ उल्लेख है कि विवाद की स्थिति में आपस में मिलकर या अन्य आचार्यों के सहयोग से इसका हल किया जाए। हमारी कोशिश भी कुछ ऐसी ही है। हाल ही में त्र्यंबकेश्वर में इस विवाद पर मंथन हुआ था। उम्मीद है कि नासिक कुंभ में दोनों पक्ष एक साथ बैठेंगे और विवाद का पटाक्षेप हो जाएगा।
ज्योतिष्पीठ की लड़ाई बहुत पुरानी
उत्तराखंड के जिला चमौली में ज्योतिष्पीठ है। इसकी लड़ाई बड़ी पुरानी है। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित यह पीठ पहले १६५ साल खाली रही। गंभीर मंथन के बाद संतों ने ११ मई १९४१ को स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती यहां पीठाधीश्वर बनाया। काशी विद्वत परिषद, भारत धर्म महामंडल ने स्वामी ब्रह्मानंद का पट्टाभिषेक किया। वह २० मई १९५३ को ब्रह्मलीन हो गए। इसके बाद उनकी वसीयत में उन्होंने स्वामी हरिहरानंद (करपात्री जी महाराज), स्वामी शांतानंद सरस्वती व संन्यास लेने की शर्त पर पं. द्वारिका प्रसाद शास्त्री, स्वामी विष्णुदेवानंद आदि का नाम उत्तराधिकारी के रूप में शामिल किया था। संतों का कहना है कि करपात्री जी ने शंकराचार्य बनने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी। तब छोटी गैबी सिद्धगिरिबाग काशी में स्वामी शांतानंद का छह जून १९५३ को ज्योतिषपीठाधीश्वर के रूप में पट्टाभिषेक हुआ। इससे नाराज हुए करपात्री जी ने स्वामी कृष्णबोधाश्रम को शंकराचार्य के रूप अभिषिक्त कराया। इस कार्य में काशी विद्वत परिषद व पंडित महासभा ने सहयोग किया। स्वामी कृष्णबोधाश्रम ने वर्ष १९६३ में स्वामी शांतानंद के खिलाफ मुकदमा कर दिया कि उन्हें शंकराचार्य बनने का अधिकार ही नहीं है। लेकिन अदालती लड़ाई उनके पक्ष में नहीं रही। इस बीच १० सितंबर १९७३ को स्वामी कृष्णबोधाश्रम ब्रह्मलीन हो गए। फिर करपात्री जी ने स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को ज्योतिषपीठ का शंकराचार्य बनाया गया। उन्होंने १९७४ में मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के सिविल जज की अदालत में स्वामी शांतानंद के खिलाफ मुकदमा दायर किया। मुंकदमेबाजी चल ही रही थी कि कुछ साल बाद स्वामी स्वरूपानंद द्वारिकापीठ के भी शंकराचार्य बना दिए गए। इधर २८ फरवरी १९८० को स्वामी शांतानंद ने स्वामी विष्णुदेवानंद सरस्वती का काशी में ज्योतिष पीठाधीश्वर के रूप में अभिषेक करवाया। स्वामी विष्णुदेवानंद के ब्रह्मलीन होने पर वसीयत के अनुसार ही स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती का काशी में १४-१५ नंवबर १९८९ में पट्टाभिषेक हुआ। तब से ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य का मुकदमा स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती बनाम स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती का हो गया। ज्योतिष्पीठ का विवाद पहले हाई कोर्ट गया, जहां से स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के पक्ष में फैसला आया। २३ अगस्त २००४ को सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी और दोबारा याचिका पर २ फरवरी २००५ को सर्वोच्च न्यायालय ने सिविल कोर्ट में सुनवाई होने का आदेश दिया। तब से इलाहाबाद के सिविल जज के यहां मुकदमा चल रहा था। स्वामी स्वरूपानंद बोले, न्याय की जीत हुई शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने सत्र न्यायालय फैसले को न्याय की जीत बताया। फैसले पर संतोष जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि इससे जनता जनार्दन को फर्जी शंकराचार्यों से मुक्ति मिलेगी। इसके बाद उच्च न्यायालय की ओर शंकराचार्य की लड़ाई बढ़ी।
५२ साल बाद भी मामला शांत नहीं
ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य को लेकर अर्से से जारी विवाद फिलहाल शांत होता नजर नहीं आ रहा। छत्र-चंवर धारण करने की ५२ वर्षों से चल रही कानूनी लड़ाई अभी और खिंच रही है। पहली बार यह मामला १९६३ में अदालत पहुंचा था। पहले मध्य प्रदेश के सिवनी में १९७४ में सिविल जज की अदालत में शांतानंद के खिलाफ याचिका दायर की। बाद में सुनवाई इलाहाबाद में होने लगी। मामला सर्वोच्च न्यायालय भी पहुंचा। शीर्ष अदालत ने २३ अगस्त २००४ को ने हाईकोर्ट द्वारा वासुदेवानंद के पक्ष में दिए गए फैसले पर रोक लगा दी। दोबारा याचिका दायर होने पर दो फरवरी २००५ को सर्वोच्च न्यायालय ने सिविल कोर्ट में सुनवाई का आदेश दिया। गुरु परंपरा व कानूनी आधार पर न तो कभी स्वामी कृष्णबोधाश्रम और न ही स्वामी स्वरूपानंद ज्योतिषपीठाधीश्वर रहे। न्यायालय ने १९६५ में स्वामी शांतानंद के पक्ष में फैसला सुनाया। बाद में सिविल जज ने १९७० में कृष्णबोधाश्रम के खिलाफ फैसला सुनाते हुए उन्हें छत्र व चंवर का प्रयोग न करने का आदेश दिया था। अभी एक और फैसला आना बाकी है।