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'जहर नहीं जैविक चाहिए, जीएम नहीं जिन्दगी चाहिए'

ललितपुर ब्यूरो : भारतीय किसान संघ ने आनुवाँशिक इजीनियरिग अनुमोदन समिति द्वारा जीएम सरसों बीज का अनुम

By Edited By: Published: Wed, 26 Oct 2016 01:21 AM (IST)Updated: Wed, 26 Oct 2016 01:21 AM (IST)
'जहर नहीं जैविक चाहिए, जीएम नहीं जिन्दगी चाहिए'

ललितपुर ब्यूरो : भारतीय किसान संघ ने आनुवाँशिक इजीनियरिग अनुमोदन समिति द्वारा जीएम सरसों बीज का अनुमोदन करने पर विरोध जताया है। इस सम्बन्ध में जिलाधिकारी के माध्यम से केन्द्र सरकार को ज्ञापन सौंपा गया। इस दौरान कार्यकर्ताओं ने जम कर 'जहर नहीं जैविक चाहिए, जीएम नहीं जिन्दगी चाहिए' 'जीएम सरसों को बैन करो, जीईएसी की जाँच करो' जैसे नारे लगाए गए। चेतावनी दी कि ठोस पहल न किए जाने पर चरणबद्ध आन्दोलन होगा।

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भारतीय किसान संघ के प्रान्तीय उपाध्यक्ष केहर सिंह बुन्देला की अगुवाई में ज्ञापन सौंपा गया। इस दौरान बताया गया कि सरसों खाद्य सामग्री है। सरसों का साग, तेल खाने व औषधीय उपयोग में लाया जाता है। खली का प्रयोग पशु आहार में होता है। बावजूद इसके आनुवाँशिक इजीनियरिग अनुमोदन समिति जीएम सरसों बीज का अनुमोदन करने पर आमादा है। यह किसान भाइयों को स्वीकार्य नहीं है। जबकि 2006 में ही जीएम बैगन को खाद्य पदार्थ मानते हुए सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा गठित तकनीकि सलाहकार समिति ने खाद्य फसलों की फिल्ड ट्रायल खुले खेत में करने से मना किया था। संसद की स्थायी समिति ने भी उस समय रोक लगा दी थी। तत्कालीन सरकार ने जीएम बैगन को अनुमति रोक दी थी। फिर बैगन को छोड़कर सरसों पर क्यों वही कार्यवाही की जा रही है।

आरोप लगाया गया कि अनुमोदन समिति द्वारा 2006 तक इस प्रकार के आँकड़े वेबसाइट पर डाले जाते थे। जिस पर वैज्ञानिक नजर रखते थे। अब आँकड़े डाले जाना बन्द कर दिए और चुपचाप पिछले दरवाजे से काम हो रहा है। भारतीय कानून प्लाण्ट प्रोटेक्शन एण्ड फार्मर राइट प्रोटेक्ट एक्ट 2001 के तहत भी ऐसा करना गैरकानूनी है। विज्ञान के क्षेत्रों से यह क्षेत्र अलग है। खेती में जो तकनीकि अपनाई जा रही है, उसके प्रति सजग रहना होगा। कृषि तकनीकि ही जहरीली बन जाती है, तो इसमें दोष किसका है। देश के किसान, उपभोक्ता और जलवायु को नुकसान पहुँचाने वाले किसी षड़यंत्र को यहाँ का किसान सफल नहीं होने देगा। प्रधानमंत्री से माँग की गई कि जीएमवी किसान के हित में नहीं है। इसे कतई लागू न किया जाए। प्रदर्शन में केहर सिंह बुन्देला, नवीन जैन थनवारा, लल्लूराम शर्मा, घनश्याम अहिरवार, भगवान सिंह बुन्देला, हरपाल सिंह प्रजापति, बंशीलाल, हरीशकर, गोपाल सिंह बुन्देला, राजबहादुर सिंह, फूलसिंह, लम्पू, तोरन, जगभान, जगत सिंह, पुष्पेन्द्र सिंह बुन्देला, सोहनलाल, जन्मेजय लोधी, हन्नू कुशवाहा, दीपक कुशवाहा आदि मौजूद रहे।

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बीज की प्रॉपर्टी पर एकाधिकार क्यों?

सरसों को प्रकृति ने स्वयं बनाया है। इसमें किसी ने योगदान दिया भी है, तो उसका प्रॉपटी राइट किसी एक के हाथ में चला जावे, यह कहाँ तक उचित है। ऐसे में किसानों का बीज पर स्वाभाविक अधिकार है। उसी का यह निर्णय हनन और अतिक्रमण करता है। कम्पनियाँ बीज पर एकाधिकार करने के लिए टर्मिनेटर बीज बनाकर बाजार में लाएंगी और किसान को हर बार खरीदकर बोना पड़ेगा। अरबों करोड़ का बीज व्यापार अपने नियंत्रण में लेकर शोषण करने का रास्ता तैयार किया जा रहा है। उन्होने कहा कि आज पपीते का बीज एक लाख रुपये किलो, टमाटर का 40 हजार रुपये किलो और मिर्च का 30 से 80 हजार रुपये किलो हो गया है। ऐसे में इतना महँगा बीज किसान कैसे खरीद सकेंगे।

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हरित क्रान्ति के दुष्परिणाम पर भी रखें नजर

भारतीय किसान संघ ने कहा कि हरित क्रान्ति के अच्छे परिणाम तो हमें याद रहते है, परन्तु उसके दुष्परिणाम से भी हमें सीख लेना चाहिए। आज भूमि खराब हुई है। किसान भयंकर बीमारियों से ग्रस्त है। उपभोक्ता भी बीमारियों को भोग रहे है। पर्यावरण, जल, वायु सभी दूषित कर चुके है। पानी भी समाप्ति की ओर है। ऐसे में वैज्ञानिक आविष्कारों के दुष्परिणाम पहले पूर्णत: परीक्षित किए जाने के बाद ही खेत में उगाने की अनुमति दी जाना चाहिए। कम्पनी से सहयोग प्राप्त करने वाली संस्थाएं, वैज्ञानिक और शोधार्थी ही इसकी वकालत कर रहे है। नियंत्रण संस्था के अभाव में कम्पनियों की मनमानी के कई उदाहरण पहले से ही मौजूद है। जिन्होंने सरकारों को भी न्यायालयों में घसीटा है व किसानों का शोषण किया है। रसायन का प्रभाव तो कुछ वर्ष बाद कम हो जाए, लेकिन जीन में बदलाव के प्रभाव को वापस नहीं लिया जा सकता। यह बीज स्वयं उगना, बढ़ना, स्थायी प्रभाव छोड़ने लगता है। इस क्षेत्र में नियंत्रण आवश्यक है। इसलिए देश में कोई इन पर नियंत्रण रखे ऐसी संस्था भी नहीं बनाई गई। जहाँ-जहाँ बीज असफल रहा, उनकी क्षतिपूर्ति तक नहीं की गई। जनदबाव के चलते राज्य सरकारों द्वारा ही क्षतिपूर्ति की गई, कर्नाटक इसका उदाहरण है।

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घातक बीमारियों का जनक है इसका रसायन

भाकिसं ने बताया कि इसी जीएम सरसों के बीज को पूर्व में 2002 में अनुमोदन समिति रद कर कर चुकी है। बताया कि हरबीसाइड टोलरेण्ट में जो रसायन काम आता था उसका नाम ग्लाइफोसेट है और यह रसायन कैंसर का जनक है। यह 2015 में डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में घोषित हो चुका है, जो लगभग 20 वर्ष तक प्रयोग कर लेने के बाद घोषित किया गया। अभी जीएम सरसों में ग्लाइफोसेट के सिान पर ग्लूफोसाइनेट का प्रयोग किया गया है, जो कैंसर, नपुंसकता और कई खतरनाक बीमारी पैदा करता है अथवा नहीं इसके बारे में किसी को पता भी नहीं है। जीएम सरसों का पहले कनाडा में प्रयोग किया जा चुका है। वहाँ इसके कारण लाखों की संख्या में मधुमक्खियों के छत्ते गायब हो गए, जबकि मधुमक्खियाँ ही परायण द्वारा उत्पादन सम्भव है। जीएम सरसों में पुरुष नपुंसकता का प्रयोग हुआ है। इसलिए उसके परायण को खाने से मधुमक्खी नष्ट हो रही है। आने वाली पीढि़यों पर क्या परिणाम होंगे कोई वैज्ञानिक जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है।

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पैदावार वृद्धि के दावे झूठे

भाकिसं ने कहा कि जीएम सरसों से पैदावार वृद्धि होने के दावे झूठे है। सच तो यह है कि अधिक उपजाऊ के लिए इसका निरीक्षण नहीं हुआ है। जब यह सच पकड़ा गया, तो वैज्ञानिक और संस्थाएं बोलने लगे कि हम करोड़ों रुपये अब तक खर्च कर चुके है, उसका क्या होगा। सवाल उठाया कि इसका खामियाजा क्या राष्ट्र भुगतेगा। उन्होंने सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री और पर्यावरण मंत्री जैविक फसलों के पक्षधर होते हुए भी भारतीय जनता के लिए जहर की व्यवस्था क्यों की जा रही है।

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अनजान दबाव में काम कर रही अनुमोदन समिति

उन्होंने बताया कि अमेरिका में जो जीएम सरसों सोयाबीन और मकई होती है, वह शत प्रतिशत पशुओं के लिए होती है, तो क्या अनुमोदन समिति भारत की गरीब जनता को पशु समान समझती है। अनुमोदन समिति किसी अनजान दबाव में काम कर रही है। कोई पॉवरफुल लॉवी इसके पीछे काम कर रही है। वर्ष 2002 में बीटी कपास को अनुमति दी गई थी। उस बीज के परीक्षण के लिए हमारे बीज परीक्षण केन्द्रों को अनुमति नहीं दी गई थी। कम्पनी को आनन-फानन में अपना बीज बेचने की छूट दी गई थी, जो समझ से परे था।


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