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हर साल 'रंग' बदल रहा स्वाइन फ्लू का वायरस

अंजनी निगम, कानपुर स्वाइन फ्लू का वायरस हर साल रंग बदल रहा है। शायद यही कारण है कि इस बार स्वाइन फ

By Edited By: Published: Sun, 01 Mar 2015 01:02 AM (IST)Updated: Sun, 01 Mar 2015 01:02 AM (IST)
हर साल 'रंग' बदल रहा स्वाइन फ्लू का वायरस

अंजनी निगम, कानपुर

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स्वाइन फ्लू का वायरस हर साल रंग बदल रहा है। शायद यही कारण है कि इस बार स्वाइन फ्लू का वायरस जिस तरह से फैल रहा है, उसकी रोकथाम और इलाज करने में स्वास्थ्य विभाग हांफ रहा है। वह तो इस बात का इंतजार कर रहा है कि किसी तरह गर्मी शुरु हो और इसका वायरस एच1एन1 निष्क्रिय हो जाए।

इन्फ्लूएंजा वायरस एच1एन1 भी फ्लू वायरस का ही एक प्रकार होता है। जिस तरह बहुत सी दवाओं से मरीज रेजिस्टेंट हो जाते हैं और फिर वह दवा उनके ऊपर असरकारी नहीं रहती हैं। किसी भी रोग का हमला होने पर वह दवा और प्रतिरोधक क्षमता के सहारे ठीक होता है किंतु जब रोग का वायरस अपना प्रकार बदलने लगता है तो दिक्कत आती है। अब तक के अध्ययन के आधार पर चिकित्सकों का कहना है कि स्वाइन फ्लू का वायरस हर साल अपना स्वभाव (कैरेक्टर) बदल रहा है जिसके कारण लोग रेजिस्टेंट नहीं हो पा रहे हैं।

सीनियर फिजीशियन डॉ. कुनाल सहाय ने बताया कि वायरस में यह बदलाव दो तरह का होता है। पहला बदलाव आंशिक होता है जिसे एंटीजेनिक ड्रिफ्ट कहते हैं। इसके सक्रिय होने से माइनर एपीडेमिक होती है, जो कुछ लोगों पर तो असर करती है जबकि बहुत से लोगों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। दूसरा बदलाव एंटीजेनिक शिफ्ट कहलाता है, इसमें वायरस में इतना बड़ा बदलाव होता है कि वह नये 'अवतार' (प्रकार) के रूप में सामने आता है। यह पूरे विश्व में फैलता है जिसे पैनडेमिक के रूप में जाना जाता है।

2009 में हुआ था बड़ा बदलाव

डॉ. सहाय का कहना है कि वायरस के स्वभाव में हर साल कुछ बदलाव होता है और कई सालों के बाद वह बड़े बदलाव के रूप में देखने को मिलता है। वर्ष 2009 में यह पैनडेमिक के रूप में ही सामने आया था। उन्होंने कहा कि इस तरह के परिवर्तन कई सालों में होते हैं। यह तो शोध के बाद ही पता चलेगा कि इस बार वायरस का हमला किस प्रकार का है।

वैक्सीन भी पूरी तरह कारगर नहीं

उन्होंने कहा कि यही कारण है कि एंटी इन्फ्लूएंजा वैक्सीन पूरी तरह से कारगर नहीं हो पाती है। पैनडेमिक के बाद जब शोध कर वायरस के प्रकार और स्वभाव का पता लगता है तब वैक्सीन तैयार की जाती है। अगली बार वायरस का स्वभाव बदलने पर पुरानी वैक्सीन 100 फीसद कारगर नहीं हो पाती है। फिर भी रोग का प्रसार होने के बाद वैक्सीन उतना असरकारी नहीं होती जितना सीजन की शुरुआत होने पर। हाई रिस्क वाले लोगों को वैक्सीन सितंबर अक्टूबर में लगवाना चाहिए। सर्दी के मौसम में इसका वायरस अपने चरम पर होता है तो गर्मी में उच्च तापमान के चलते स्वत: निष्क्रिय हो जाता है।

ये हैं हाई रिस्क कैटेगरी

पांच साल से छोटे बच्चे और 65 वर्ष से अधिक आयु के बुजुर्ग हाई रिस्क कैटेगरी में आते हैं। डायबिटिक, हृदय रोगी, फेफड़े, गुर्दे और लीवर के अलावा कैंसर और एचआईवी संक्रमित इस भी इस कैटेगरी में आते हैं। मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टर और स्टाफ भी इसी वर्ग में हैं।


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