बेजुबान कब से मैं रहा..
शिखा पोरवाल (झाँसी) : कल्पना कीजिये उस पल की, जब मन में सैकड़ों विचार उमड़-घुमड़ रहे हों, लेकिन जुबाँ स
शिखा पोरवाल (झाँसी) : कल्पना कीजिये उस पल की, जब मन में सैकड़ों विचार उमड़-घुमड़ रहे हों, लेकिन जुबाँ साथ न दे। आँखों के सामने दृश्यों की भरमार हो - कुछ अपने, तो कुछ पराये बात कर रहे हों - उन्हें आप देख तो रहे, लेकिन उनकी आवा़ज कानों तक न पहुँचे - सोचिये कितना विचलित होगा मन। जिस हालात की कल्पना से ही आपका मन पीड़ा से भर उठा, सोचिये इस स्थिति से गु़जर रहे लोगों के बारे में। इसके बाद भी ज़ज्बे और हौसले की राह पकड़े कुछ लोग खामोशी की इस गहराई से निकलकर समाज के लिए मिसाल बन चुके हैं। आज विश्व मूक-बधिर दिवस पर हम बात करेंगे इस समस्या और समाज के कुछ ऐसे ही लोगों के बारे में।
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इतिहास के पन्नों से
प्रत्येक वर्ष 26 सितम्बर को 'विश्व मूक बधिर दिवस' मनाया जाता है। हालाँकि इस दिन की उपयोगिता को देखते हुए कुछ वर्षो से यह दिवस सप्ताह के रूप में मनाया जा रहा है। इस दिवस को मनाने की शुरूआत विश्व बधिर संघ (डब्ल्यूएफडी) ने 1958 में की थी। उद्देश्य था लोगों के मन में बधिरों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अधिकारों के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने का।
देश में विकलांगों की संख्या
2001 की जनगणना के अनुसार देश में 2.19 करोड़ लोग विकलांग थे, जिनमें 1.26 करोड़ पुरुष और 93 लाख महिलाएं हैं। इनमें दृष्टि बाधित, सुनने में असमर्थ, चलने में असमर्थ और मानसिक रूप से नि:शक्त लोग शामिल हैं। आँकड़े बताते हैं कि इनमें से 75 प्रतिशत लोग गाँवों में रहते हैं, 49 प्रतिशत साक्षर हैं और 34 प्रतिशत लोगों को रो़जगार हासिल है।
सिनेमा ने दिखाया आइना
सामाजिक स्थिति का आइना बनी सिनेमा ने इस पक्ष को न सि़र्फ देखा - महसूस किया, बल्कि फिल्मों के माध्यम से उजागर भी किया। 1996 में आई फिल्म 'खामोशी', जिसके मुख्य किरदार ही गूँगे-बहरे हैं। नाना पाटेकर और सीमा की जोड़ी ने संकेतों की भाषा से सभी को अचम्भित कर दिया। नागेश कुकनूर की ़िफल्म 'इकबाल' भी ऐसी ही विकलांगता की परिकल्पना को परिभाषित करती है। फिल्म के मुख्य पात्र श्रेयस तलपड़े गूँगे लड़के की भूमिका में हैं, जिसका मन भारतीय क्रिकेट टीम की हिस्सा बनने को तड़पता है, जिसे उन्होंने अपनी इच्छाशक्ति के बल पर हासिल भी किया। अनुराग बसु द्वारा निर्देशित बर्फी फिल्म भी मूक-बधिर 'बर्फी' (मर्फी) पर आधारित है, जो एक ड्राइवर का बेटा है। फिल्म का मुख्य पात्र रणबीर कपूर (बर्फी) गूँगा-बहरा है। बिना संवाद के बेहतरीन अभिनय कर रणबीर ने दर्शकों को बेहद प्रभावित किया। ये तो हुई फिल्मों की बात - हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग हैं, जो मूक-बधिर हैं, पर उन्होंने इसे अभिशाप नहीं माना।
इनकी कला के दीवाने ह़जारों हैं..
कैनवस हो या धरती - इनके हाथों से छूटते रंग कला का नायाब नमूना पेश करते हैं। हम बात कर रहे हैं अंकित शर्मा की। अंकित की जुबान भले ही खामोश हो, लेकिन उनकी पेण्टिंग बोलती है। बड़ागाँव निवासी बृजेन्द्र कुमार शर्मा के बेटे अंकित शर्मा मूक-बधिर हैं। 1 साल की उम्र में दिमागी बुखार ने इनसे सुनने और बोलने की क्षमता छीन ली। इसके बाद शुरू हुआ अंकित के जीवन का वो दौर, जिसमें छोटी-छोटी चीजों को पाने के लिये उन्हें संघर्ष करना पड़ा। अंकित ने प्रारम्भिक शिक्षा अपने पैतृक गाँव बड़ागाँव से ही ली। पिता बृजेन्द्र कुमार शर्मा पेशे से अध्यापक हैं - उन्हें शारीरिक अस्वस्थता के कारण बच्चे की पढ़ाई बीच में छुड़वा देना गवारा नहीं था। पिता ने अपना ़फर्ज निभाया और अंकित पढ़ने लगा। हाइस्कूल और इण्टरमीडिएट की पढ़ाई अंकित ने झाँसी से की। हालाँकि इस दौरान दाख़्िाले के सिलसिले में उन्हें काफी परेशान होना पड़ा, लेकिन हौसला कहाँ डिगने वाला था। इण्टरमीडिएट के साथ ही अंकित ने अपना भविष्य कला के क्षेत्र को चुन लिया। उसने फाइन आर्ट से बैचलर की डिग्री प्राप्त की। इस समय अंकित राजा मान सिंह तोमर म्यू़िजक ऐण्ड आर्ट यूनिवर्सिटी से मास्टर्स का डिग्री कोर्स कर रहे हैं।
ये कहानी है प्रवीण कुमार तिवारी की, जो बचपन से मूक बधिर हैं। पिता राजाराम तिवारी पण्डित राम सहाय शर्मा इण्टर कॉलिज, बरुआसागर से रिटायर्ड प्राध्यापक हैं। माँ बीएएमएस डॉक्टर हैं। प्रवीण 4 भाइयों में दूसरे नम्बर पर हैं। काफी इलाज के बाद जब कोई आस ऩजर नहीं आयी, तो फिर माता-पिता का धैर्य जवाब दे गया, लेकिन प्रवीण ने कमजोरी को ताकत बनाकर ़िजन्दगी की इस कठिन चुनौती को स्वीकार किया। प्रवीण ने प्राइमरि एजुकेशन डीफ ऐण्ड डम्ब स्कूल भोपाल और लखनऊ से प्राप्त की। उनकी पढ़ाई के प्रति लालसा को देखते हुए आगे की पढ़ाई दिल्ली डीफ ऐण्ड डम्ब स्कूल से हुई। प्रवीण के भाई स्वतन्त्र, डॉ. सुनील और आलोक बताते हैं- प्रवीण में बचपन से ही लीडरशिप क्वालिटि है। भले ही जुबान इनका साथ न दे, लेकिन इनके हाव-भाव उनके विचार को सहजता से व्यक्त कर देते हैं। किसी भी मूक-बधिर व्यक्ति को गणित का ज्ञान करा पाना मुश्किल होता है, लेकिन प्रवीण गणित विषय में बेहद होशियार हैं। वर्षो से वे अपनी एक छोटी-सी दुकान चला रहे हैं। आदर्शो के धनी प्रवीण की दुकान में कोई भी गुटखा, सिगरेट जैसी नशीली वस्तु नहीं मिलेगी। इस दुकान पर या तो छात्रों से सम्बन्धित वस्तुएं मिलेंगी या फिर सेहतमन्द खाद्य पदार्थ। भाई सुनील बताते हैं- प्रवीण की याद्दाश्त बहुत अच्छी है। कोई नाम, मोबाइल नम्बर, पता या कोई अन्य बात वे एक बार पढ़ लें, तो जल्द भूलते नहीं।