चला सखी वोट देई आई, मोहर लगाई
सिंगरामऊ (जौनपुर) : गीत गाता चल रहा महिलाओं का दल, गंवई गीत के बोल थे 'चला सखी वोट देई आई, मोहर.. पे लगाई'। वो जमाना था सत्तर से अस्सी के दशक का, जब लोगों में उत्साह था, चुनाव एक पर्व के रूप हुआ करता था। अब इसके लिए जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है।
नेता, सरकार, उम्मीदवार जनाधार भले ही पा जाते हैं, लेकिन उनके पास जनता के हित की कोई बात नहीं होती। तभी तो गंवई परिवेश में रह रहे लोगों के दिल में वे जगह नहीं बना पाए हैं। प्रचार में तो बिरहा, लोकगीत, आल्हा, कौव्वाली का प्रयोग खूब जमकर होता था। आयोग का चाबुक नहीं था, मतदान केंद्रों पर संगीनों का साया नहीं था। सब नार्मल हुआ करता था। सुदूर गांव की महिलाएं झुंड बनाकर वोट देने जाती तो मौसमी गीत चुनाव के ऊपर बनाकर गाती थीं, तब लगता था कि लोकतंत्र का यह जीवंत पर्व है, लोग एक-दूसरे से वोट देने के बारे में पूछा करते थे। गांव का गांव एकजुट होकर प्रत्याशी का समर्थन करता था। बैलगाड़ी पर सवार होकर लोग प्रचार करके खूब आनंद लेते थे। भोजपुरी गीत और कौव्वालियां चुनाव प्रचार में चार चांद लगाते थे, चुनाव बीत जाने के बाद भी लोग इसे महीनों तक गुनगुनाते रहते थे। अब तो वोट पाने के लिए जनता को जाति-धर्म, ऊंच-नीच में बांट दिया गया है। प्रचार हो रहा चुपके-चुपके, कहीं ऐसा नहीं लग रहा है कि चुनाव का माहौल है। हर तरफ चुप्पी, हर तरफ खामोशी का आलम। जनता एवं समर्थक अपना उल्लू सीधा करने की ताक में हैं।