दलितों का वजूद ही मिटा दिया!
मदन मोहन शर्मा, हाथरस जनगणना के जिन आंकड़ों से पूरे देश की तमाम योजनाएं बनती हैं, अगर उसमें ही
मदन मोहन शर्मा, हाथरस
जनगणना के जिन आंकड़ों से पूरे देश की तमाम योजनाएं बनती हैं, अगर उसमें ही खामियां होंगी तो देश के नीति निर्धारक जनता को वह सबकुछ कैसे दे पाएंगे, जिनकी प्ला¨नग मेक इन इंडिया के माध्यम से तैयार होने जा रही है। जी हां जनगणना 2011 में मुरसान ब्लाक की ग्राम पंचायत नगला गजुआ के राजस्व गांव नगला गजुआ से दलितों का वजूद ही मिटा दिया गया। इस गांव में करीब 60 से 65 परिवार अनुसूचित जाति के रहते हैं, लेकिन जनगणना के आंकड़ों में यहां से इनकी संख्या जीरो दिखाई गई है। इन परिवारों के वयस्क लोगों के ग्राम पंचायत व विधान सभा मतदाता सूची में नाम शामिल हैं, जिससे फिलहाल इनके वोट तो नहीं कटे हैं, लेकिन वे सरकार की अन्य योजनाओं के लाभ से वंचित हो सकते हैं। इससे आगामी पंचायत चुनाव में सीट आरक्षण की व्यवस्था भी इससे प्रभावित हो सकती है।
मुरसान ब्लाक की ग्राम पंचायत नगला गजुआ में राजस्व गांव गोपालपुर भी शामिल है। इन दोनों की आबादी वर्ष 2001 की जनगणना में 1358 थी। इसमें अनुसूचित जाति के परिवारों की संख्या 483 थी। दोनों अलग-अलग राजस्व गांव होने के कारण इनकी आबादी भी पृथक-पृथक दर्शाई गई है। गोपालपुर की आबादी 580 है, जिसमें 342 सदस्य अनुसूचित जाति के हैं। नगला गजुआ की आबादी 869 है, जिसमें अनुसूचित जाति के जीरो सदस्य जनगणना 2011 के आंकड़ों में दर्शाए गए हैं। ऐसे में अगर देखा जाए तो दोनों गांवों को मिलाकर पिछली जनगणना से यहां की दलित आबादी 141 की संख्या कम हो गई है, जबकि दस साल में आबादी काफी बढ़ी है। नगला गजुआ में करीब 300 की आबादी अनुसूचित वर्ग की है और ये परिवार यहां रह भी रहे हैं। जनसंख्या आंकड़ों के हिसाब से वोटर सर्वे व रैपिड सर्वे की प्रक्रिया चली तो यह मामला उजागर हुआ कि जनसंख्या के आंकड़ों में ही यह परिवार छूटे हुए हैं। मतदाता सूची से नाम काटने का मामला आया तो मौके की स्थिति के साथ उनके ग्राम पंचायत मतदाता सूची व विधान सभा मतदाता सूची में नाम होने के कारण फिलहाल उनके वोट तो नहीं काटे गए हैं, लेकिन उन्हें अन्य योजनाओं का लाभ कैसे मिलेगा? यह बड़ा सवाल है, क्योंकि जनसंख्या रेसियो के हिसाब से ही सारी योजनाओं का लाभ निर्धारित होता है। यहां तक कि विकास का धन भी आबादी की संख्या के हिसाब से ही आवंटित किया जाता है। ऐसे में यह दलित परिवार सारी योजनाओं के लाभ से वंचित रह जाएंगे।
इनका कहना है-
डोर-टू-डोर सर्वे में सभी मतदाता मौके पर पाए गए हैं। इतना ही नहीं इनके नाम पहले से ग्राम पंचायत व विधान सभा चुनावों की मतदाता सूची में शामिल हैं। इसीलिए किसी मतदाता का नाम पृथक नहीं किया गया है। भले ही वहां आबादी के मानक में जेंडर रेसियो अधिक है।
-हरीकांत मिश्रा, सहायक जिला निर्वाचन अधिकारी पंचायत।
जनगणना भारत सरकार का डाटा है। इसमें बदलाव तो अगली जनगणना में ही हो सकता है। दलितों के परिवार छूटने से मतदान का अधिकार तो मिलेगा, लेकिन यह परिवार अनुसूचित जाति व व्यक्तिगत लाभार्थीपरक की तमाम योजनाओं से प्रभावित हो सकते हैं, क्योंकि स्पेशल कंपोनेंट की स्कीम गांव की दलित आबादी के हिसाब से ही शासन से मिलती है। जब आंकड़ों में इनकी आबादी का आंकड़ा जीरो होगा तो शासन की योजनाओं का लाभ मिलना कठिन होगा।
-शमीम अहमद खान, जिलाधिकारी।
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