'अन्नदाता' चौराहे पर हो रहा 'नीलाम'
पंकज मिश्रा, हरदोई: कुदरत के कहर से तबाह हुआ अन्नदाता अब खुद अन्न की तलाश में है। जो कुछ था उसने फसल
पंकज मिश्रा, हरदोई: कुदरत के कहर से तबाह हुआ अन्नदाता अब खुद अन्न की तलाश में है। जो कुछ था उसने फसल में लगा दिया। पैदावार तो नहीं ही हुई उल्टी वह कर्जदार हो गया। अब उसके पास आखिर अन्न आए तो कहां से। न खेत में उपज हुई और न ही अब उसे कोई कर्जा देगा। फसल की बर्बादी के मुआवजे का सपना तो दिखाया गया है, लेकिन कब मिलेगा यह किसी को पता नहीं। बच्चों का पेट पालने के लिए अब उनके पास मजदूरी के अलावा कुछ नहीं बचा है। छोटे छोटे किसान कभी जरूरत के हिसाब से मजदूरी करते थे लेकिन अब मजदूरी उनकी मजबूरी हो गई है और सुबह सुबह ही मजदूरों की मंडी लगती है, आदमी अधिक हैं और काम कम ऐसे में अब मेहनताने के लिए मुंह तक नहीं खोल पा रहे है। हजारों किसानों की जिंदगी किसी के रहम पर हैं टिकी है और बस उनके दो हाथों को काम चाहिए।
देश कृषि प्रधान है। अर्थशास्त्र की मजबूती में कृषि का ही महत्वपूर्ण योगदान का है। लेकिन अब यही खेती कुदरत के कहर के चलते मौत का सौदा बनती जा रही है। कहीं किसान आत्म हत्या को मजबूर हो रहे हैं तो कहीं किसानों को दिल के दौरे पड़ रहे। जिन हरे भरे खेतों को देखकर उनका दिल कुलाचें मारता था, वही खेत देखकर उनका दिल बैठ रहा है। देखा जाए तो हर साल गेंहू की कटाई और मड़ाई शुरू होते ही मजदूरों की समस्या हो जाती थी। लेकिन आज अन्नदाता खुद मजदूरी के लिए शहरों में पलायन कर रहा है। वैसे तो शहर के बड़ा चौराहा, पिहानी चुंगी और जिंदपीर चौराहा पर रोजाना सुबह मजदूरों की मंडी लगती है। काम की तलाश में दूर दूर से मजदूर यहां आते, लेकिन चैत बैसाख में सन्नाटा सा रहता। जो गिने चुने आते भी थे उनकी मजदूरी आसमान पर होती थी। कारण था कि इन दिनों काम ज्यादा और मजदूर कम होते थे, पर कुदरत की मार से तबाह किसान अब मजदूरी के लिए भटक रहा है। जिसके चलते अब संख्या अधिक है। इन दिनों 200 से लेकर 250 तक दिहाड़ी चलती थी पर अब काम के लिए भटक रहे मजदूर हालातों से समझौता कर जो जितना देते उसके साथ जाने को तैयार हैं। रोजाना सुबह सुबह चौराहों पर लगी मंडी में सौदेबाजी होती है। लोग आते हैं एक काम के लिए 10-10 लोग खड़े हैं, ऐसे में अब उन्हें मेहनत की नहीं मजबूरी की मजदूरी पर काम करना पड़ता है।
अब काम के लिए भी दर दर भटक रहे 'अन्नदाता'
बिलग्राम क्षेत्र के रजनीश के पास पांच बीघा खेत है। जो कुछ था फसल पर लगा दिया, लेकिन लागत तक नहीं लौटी। ऊपर से परिवार भी चलाना है। अब बस मजदूरी ही सहारा बची है। फूलबेहटा निवासी दयाशंकर भी खेतीबाड़ी करते हैं, पांच बीघा खेत है, फसल नष्ट हो गई। बच्चों का पेट पालने के लिए मजदूरी ही सहारा बची है। उदरा नेवालिया निवासी मथुरा ने तो कर्जा लेकर फसल बोई थी लेकिन कुछ नहीं बचा। मजदूरी के लिए आते हैं तो काम भी नहीं मिलता। अमर सिंह, शिवलाल आदि दर्जनों किसानों का यही कहना है कि न तो उन्हें सरकारी योजनाओं का कोई लाभ मिल पाता और न ही गांव में कोई काम है। फसल तबाह हो चुकी अब बस मजदूरी ही सहारा है लेकिन वह भी नहीं मिल पाती और लोग समय का फायदा उठाकर उनका शोषण करते हैं।