नवनीत की मौत से उठे शिक्षा व सिस्टम पर सवाल
गोरखपुर नवनीत की मौत, गुरुग्राम में हुई प्रद्युम्न की मौत से बिल्कुल जुदा हैं लेकिन दोनों घ्
गोरखपुर
नवनीत की मौत, गुरुग्राम में हुई प्रद्युम्न की मौत से बिल्कुल जुदा हैं लेकिन दोनों घटनाएं स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा और उनकी संरक्षा पर एक जैसा सवाल खड़ा करती हैं। अभिभावक अपने जिस जिगर के टुकड़े को घंटो तक स्कूल प्रबंधन के भरोसे छोड़ देते हैं, वहां उनकी हत्या या आत्महत्या के लिए प्रेरित होना सिस्टम ही नहीं पूरी शिक्षा पद्धति पर भी बड़ा सवाल खड़ा करती है।
सेंट ऐंथोनी स्कूल में पांचवी में पढ़ने वाला नवनीत खुदकुशी करने जैसा कठिन फैसला लेने से पहले किस मन:स्थिति से गुजरा होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। जैसा की अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा है कि क्लास टीचर उसे नाहक दंडित करती थीं और सिर्फ चापलूसों की ही बात सुनती थीं। मनोवैज्ञानिक नजरिए से देखें तो यह बात काफी गंभीर है। बच्चों पर माता-पिता और परिवार के बाद सबसे अधिक प्रभाव शिक्षक का ही पड़ता है। खासकर क्लास टीचर से बच्चे अधिक प्रभावित होते हैं। उन्हें अपना समझना और उनके व्यवहार में अपनापन ढूंढना बाल मन की सहज प्रवृत्ति होती है। ऐसे में किसी शिक्षक द्वारा अनजाने में ही किए गए किसी व्यवहार का नतीजा कितना घातक हो सकता है, नवनीत की मौत इसका बड़ा उदाहरण है।
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विद्यालयों के व्यवसायिक उद्देश्य से खड़ी हो रही समस्या : सरकारी शिक्षा व्यवस्था खासकर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है। ऐसे में आर्थिक स्थित ठीक न होने पर भी लोग बच्चों को कुकरमुत्ते की तरह उग आए कान्वेंट विद्यालयों में भेजने के लिए मजबूर हैं। तब जबकि अधिकांश स्कूलों का उद्देश्य शिक्षा के साथ व्यवसायिक भी है। अधिकतर विद्यालयों में कम वेतन पर अप्रशिक्षित शिक्षक पढ़ाने के लिए रखे जाते हैं। जिन्हें न तो बच्चों के मनोविज्ञान का पता होता है और न ही उनकी भावना का ख्याल।
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अभिभावकों की अनदेखी भी साबित हो रही जानलेवा : यह सच है कि गोरखपुर जैसे गंवई शहर में रहने वाले अधिकतर अभिभावक निचली कक्षा में ही अपने बच्चे को अंग्रेजी लिखते और बोलते देखना चाहते हैं। उन्हें जरा भी ख्याल नहीं रहता कि भारी बस्ते और बोझिल पढ़ाई के दबाव में उसके पाल्य की मानसिक स्थित कैसी है? उसके बेहतर भविष्य के सपनों में डूबे अभिभावक घर में भी उस पर पढ़ने और सिर्फ पढ़ने का ही दबाव बनाए रखते हैं। दोस्त बन कर कभी उससे बात करने की कोशिश नहीं करते, ताकि अपने मन की बात वह बता सके और उन्हें उसकी मानसिक दशा का पता चल सके।
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इसमें कोई शक नहीं कि स्पर्धा के इस दौर में बच्चों पर पढ़ाई का दबाव बढ़ रहा है। दूसरे बच्चे से बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव सबसे अधिक है। अभिभावकों को चाहिए कि अपने पाल्य से नियमित बात करें। उसकी समस्याओं तथा स्कूल में दिन भर की गतिविधियों के बारे में पूछे। ताकि समय रहते वस्तुस्थिति का पता चल सके। शिक्षकों को भी बच्चों को बच्चे के ही नजरिए से देखना चाहिए न कि उसे परिपक्व विद्यार्थी मानकर उसके साथ व्यवहार करना चाहिए।
प्रो. धनंजय कुमार, मनोविज्ञान, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय