पहले कदम पर फूल गया दम
गोरखपुर : मनरेगा के तहत गांवों में करोड़ों खर्च के बावजूद छोटे तालाबों, पोखरों, नालों को संरक्षित करन
गोरखपुर : मनरेगा के तहत गांवों में करोड़ों खर्च के बावजूद छोटे तालाबों, पोखरों, नालों को संरक्षित करने की योजना का तो हाल जगजाहिर है, बड़े जल क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने की दो वर्ष पहले शुरू हुई शासन की योजना भी ठंडे बस्ते में ही दबी रह गई। योजना में उन नदियों व तालाबों को नया जीवन देना था जो लुप्तप्राय हो गए हैं लेकिन सर्वे तक सीमित होने के एक कदम के बाद ही प्रशासन भूल गया कि उसकी कोई विशेष जिम्मेदारी थी। गोरखपुर जिले में आमी नदी को इस श्रेणी में रखा जरूर गया था लेकिन ठोस नतीजे पर पहुंचने से पहले ही जिम्मेदार अधिकारियों का मानो साहस ही जवाब दे गया। अतिक्रमण व गंदगी से मर रही इस नदी का प्रोजेक्ट तक नहीं बन सका और मिटती जा रही आमी नदी को पूरी तरह मरने के लिए छोड़ने में संकोच नहीं किया। इतना ही नहीं जिले में अन्य जल स्रोतों की भी खोज करना जरूरी नहीं समझा गया।
शासन ने दो साल पहले तालाब, नदियों व अन्य जल स्रोतों का चयन करने का निर्देश दिया था। शासन की इस दूरगामी योजना का उद्देश्य छोटे परंपरागत जल स्रोतों के साथ बड़े जल स्रोतों को भी बचाना था। दस साल पहले प्रदेश सरकार ने आदर्श जलाशय योजना प्रारंभ की थी। इस योजना में भी प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक जलाशय (तालाब) का निर्माण, सुदृढ़ीकरण, जीर्णोद्धार किया जाना था। शासन का मानना था कि ग्रामीण क्षेत्र में जलापूर्ति का मुख्य साधन भूजल है और भूजल की अत्यधिक मात्रा में दोहन से जलस्रोतों पर प्रभाव पड़ रहा है। बाद में इस योजना को मनरेगा से जोड़ दिया गया। इसके तहत गांवों में पोखरों की खोदाई, संरक्षण जैसे कार्यो पर धनराशि खर्च भी की गई और विलुप्त होने से बचाने का प्रयास ही नहीं किया गया।
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सहजनवां-कौड़ीराम के बीच नापी थी आमी की लंबाई
सिंचाई विभाग के बाढ़ एवं ड्रेनेज खंड की टीम ने सहजनवां व कौड़ीराम के बीच आमी नदी का सर्वेक्षण किया था और उसकी लंबाई नापी थी। कभी आमी नदी से जुड़े रहे और वर्तमान में पाटे जा चुके नालों का भी टीम ने स्थलीय मुआयना किया था।
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शासन से धन लेने की नहीं हुई कोशिश
जाहिर है कि आमी नदी के संरक्षण पर भारी-भरकम धनराशि खर्च होती। इसका अंदाजा लगाकर ही अधिकारियों के हाथ-पांव फूल गए। उनका कहना था कि मनरेगा से बजट के लिए शासन से मंजूरी लेनी पड़ती और ऐसे में इसमें कौन पहल करे, इसके लिए कोई आगे नहीं बढ़ सका। नतीजा यह हुआ कि धनराशि जारी नहीं हो सकी।
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सामाजिक संगठनों ने भी नहीं ली रुचि
शासन ने जल स्रोतों के पुनर्जीवन एवं जल संरक्षण के क्षेत्र में कार्य करने वाले सामाजिक संगठनों, स्वयं सेवी संगठनों एवं कार्यकर्ताओं-नागरिकों की भी मदद लेने का निर्देश दिया था लेकिन कुछ नहीं हुआ।
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क्या कहते हैं नागरिक
कौड़ीराम के कोठा गांव के प्रशांत गुप्ता कहते हैं कि आमी नदी को तो जैसे मरने के लिए ही छोड़ दिया गया है। शासन-प्रशासन को कोई चिंता नहीं दिखती है।
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माहोपार के दुर्गेश मौर्य कहते हैं कि आमी की बदहाली दूर करने के क्या उपाय हो रहे हैं, तट के गांवों के नागरिकों को कुछ पता ही नहीं है।
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कौड़ीराम गजपुर के राजाराम यादव कहते हैं कि तालाबों को विलुप्त होने से बचाना कौन कहे, पाट ही लिए जा रहे हैं। इसके लिए सभी को जागरूक होना होगा।
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गिरधरपुर के जयप्रकाश गुप्ता कहते हैं कि तालाबों व नदियों को बचाने के प्रयास हो रहे हैं, यह सिर्फ सुनने में ही आता है। वास्तव में कागजी कोरम ही पूरा होता है।
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भूगर्भ में पीने योग्य मीठा जल बहुत ही सीमित मात्रा में बचा है। इसकी मूल वजह भूगर्भ जल का लगातार हो रहा दोहन है। पहले हर गांव-शहर में आबादी के मुताबिक बड़े जलाशय होते थे, जो जल री चार्जिग के प्रमुख स्रोत थे। उसे एक तो पाट दिया जा रहा है, दूसरे जो बचे हैं उन्हें प्रदूषित किया जा रहा है। इसके लिए जागरुकता सबसे जरूरी है। शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी है कि अभी भी समय है, विलुप्त होते परंपरागत जल स्रोतों को ईमानदारी से बचाने की मुहिम शुरू करे।
-प्रो. सीपीएम त्रिपाठी, पर्यावरणविद्