गुरु जी के सिर में पड़े रंगों का करते इस्तेमाल
जागरण संवाददाता, गोरखपुर : जब होश संभाला है और जब से देख रहा हूं होली सुरुर। मैंने काफी अंतर पाया है
जागरण संवाददाता, गोरखपुर : जब होश संभाला है और जब से देख रहा हूं होली सुरुर। मैंने काफी अंतर पाया है। मेरा वास्ता गांव व शहर दोनों से है। गांव में सीमित संसाधनों में प्रेम व सौहार्द के वातावरण में बांस की पिचकारी बना करके लोगों पर रंग डाला है। उस समय बहुत ही प्रेम व सौहार्द के वातावरण में होली खेली जाती थीं। इसके स्वरूप में थोड़ा बदलाव आया है। कही प्रेम और सौहार्द तो दिखाई देता है परंतु कही-कही इसका विकृत चेहरा भी दिखाई पड़ता है। मैं पडरौना के एक स्कूल में कक्षा ग्यारहवीं का छात्र था। मेरे सबसे प्रिय गुरुवर सिद्धेश्वर द्विवेदी जो रसायन विज्ञान पढ़ाते थे। होली दिन हम गुरु शिष्य होली का भरपूर आनंद लेने अन्य शिक्षकों के घर जाते और विद्यार्थियों के यहां भी। ऐसे में जब हमारे रंग खत्म हो जाते थे तो मैं गुरु जी के सिर में पड़े रंग का इस्तेमाल दोस्तों के चेहरे पर लगाने के लिए करता था। वह बहुत आनंदित होते। बदलते स्वरूप के बारे में उन्होंने कहा कि आज लोगों ने इस उत्सव के रूप को बदला है। लोग मद्यपान करके सड़कों पर तेज रफ्तार से गाड़ियां चलाते हैं हुड़दंग करते है और अश्लील शब्दों का इस्तेमाल करते है जो ठीक नहीं है। समाज के सभी वर्गो से आग्रह करता हूं कि इस पर्व को शालीनता से मनाएं आपसी सौहार्द व प्रेम की पराकाष्ठा का प्रदर्शन करें।
राकेश त्रिपाठी
मुख्य वाणिज्य प्रबंधक (यात्री सेवा) पूर्वोत्तर रेलवे।