'बाबा' की बगिया में अब 'लाडो' नहीं गाती कजरी
गाजीपुर : बागों में सावन के झूले पर कजरी गाती लाडो आज भले न दिखती हो,पर एक समय था,जब गांव-गांव इसका खासा महत्व था। सावन शुरू होते ही बाग-बगीचे में झूले पड़ जाते थे। धीरे-धीरे बढ़ते समय के साथ यह परंपरा विलुप्त होती चली गई। अब न कही झूला दिखता है ना ही कजरी गाती 'लाडो'।
रसूलपुर की नीतू यादव का कहना है कि परदेश गए पिया की याद में गोरी की बिरह वेदना, देवर-भाभी की मिठी मनुहार ,सास-ननद के ताने, बादल से पिया तक संदेश पहुंचाने का आग्रह आज भी जब याद आता है तो मन को छू जाता है। आमघाट कालोनी की अर्चना पांडेय का कहना है कि झूला कजरी की परंपरा लुप्तप्राय हो चली है। इसकी जगह आज टीवी व नेट ने ले लिया हैं। महिलाएं आधुनिकता को पसंद करने लगी है। फुल्लनपुर की कुसुम पाल का मानना है कि झूला कजरी की परंपरा संस्कृति धरोहर है। इससे हमें प्रेम व अपनत्व की सीख मिलती है।
आज की युवा पीढ़ी इस धरोहर से अनभिज्ञ है। इस लोक संस्कृति को जीवित रखकर समाजिक समरसता को मजबूत बनाया जा सकता है। बबेड़ी की रेनू यादव का मानना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में यह परंपरा आज भी जीवित हैं। शहरी क्षेत्रों में इस परंपरा को बनाएं रखने के लिए प्रचार प्रसार की जरूरत हैं।