मासूमों का निवाला भी चट कर गए घोटालेबाज
जागरण संवाददाता, फर्रुखाबाद : शासन की ओर से गरीब मजदूरों के बच्चों के लिए सचल पालना परियोजना शुरू
जागरण संवाददाता, फर्रुखाबाद : शासन की ओर से गरीब मजदूरों के बच्चों के लिए सचल पालना परियोजना शुरू की गई थी। इसके तहत माता-पिता के मजदूरी के लिए जाने पर उनके छह वर्ष तक के बच्चों की देखभाल करने व इस दौरान उन्हें पुष्टाहार उपलब्ध कराने की योजना थी, लेकिन घोटालेबाज इसमें भी खेल कर गए। बिना सत्यापन के लखनऊ से भुगतान हो गया। फर्जी केंद्र संचालित दिखा कर शासन से मिली धनराशि हड़प कर ली गई। शासन ने अब पूरी योजना की जांच के आदेश कर दिए हैं।
श्रम विभाग की ओर से सचल पालना गृह परियोजना वर्ष 2013 में पूरे प्रदेश में शुरू की गई थी। मजदूरी पर जाने वाले माता-पिता के बच्चों को दिन में पौष्टिक भोजन और अच्छी परवरिश के उद्देश्य से शुरू की गई परियोजना शुरुआत से ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई, या शायद इसकी शुरुआत ही घोटाले की मंशा से की गई। श्रम विभाग ने योजना को क्रियांवित करने की जिम्मेदारी एनजीओ को सौंप दी। एनजीओ को सीधे लखनऊ से भुगतान कर दिया गया। उच्च न्यायालय के आदेश पर प्रदेश सरकार ने मामले की जांच अब सीबीआई को सौंप दी है। विदित है कि वर्ष 2016 में उच्च न्यायालय में दाखिल एक जनहित याचिका पर विगत 29 मई को हाईकोर्ट ने सचल पालना परियोजना की सीबीआई जांच का आदेश दिया था। घोटाले की परते खुलीं तो जांच की आंच से जनपद फर्रुखाबाद भी अछूता नहीं रहेगा।
जनपद में रफत फाउंडेशन और पायनियर फाउंडेशन नाम की दो एनजीओ को दो-दो कैंप आवंटित किए गए। हर कैम्प में 25 बच्चों के लिए बजट दिया गया। इसमें एक से छह साल तक के बच्चों का पंजीकरण होना था। सरकारी दस्तावेजों की बात करें तो रफत फाउंडेशन ने विकास खंड मोहम्मदाबाद के ग्राम सिरौली स्थित मजरा उंची-गधेड़ी में सतीश और रमेश के मकान में दो कैम्प चलाए। वहीं पायनियर फाउंडेशन ने सिरौली के ही भरत नगर में महिपाल ¨सह और जयपाल ¨सह के मकान में 25-25 बच्चों के दो कैम्प आयोजित किए। दोनों एनजीओ द्वारा 100 बच्चों को इस योजना से जोड़ा गया। योजना में बच्चों को अच्छा पौष्टिक भोजन और खेल-कूद की व्यवस्था के अलावा कई अन्य सुविधाएं भी दी जानी थीं। लेकिन योजना पूरी तरह कागजों पर सिमट कर रह गई। एनजीओ ने पंजीकरण रजिस्टर में बच्चों के नाम ¨रकी, ¨पकी, राधा, महेश, माहतिया आदि तो अंकित कर दिए, लेकिन जानबूझकर उनके माता-पिता ने नाम व पते का कोई उल्लेख नहीं किया। जाहिर है कि केवल नाम के आधार पर बच्चों की न तो तलाश की जा सकती है और न ही सत्यापन हो सकता है। पूरी योजना फाइलों में चलकर पूरी हो गई और भुगतान भी लखनऊ मुख्यालय स्तर से ही कर दिया गया। जनपद स्तरीय अधिकारियों की रिपोर्ट को भी दरकिनार कर दिया गया। उन्हें तो यह भी नहीं मालूम की एक कैंप के लिए एनजीओ को कितना भुगतान किया गया।
श्रम प्रवर्तन अधिकारी शिव शंकर पाल की माने तो 2013 में यह योजना फर्रुखाबाद में भी चली थी। लखनऊ की दो एनजीओ को मुख्यालय से नामित किया गया था। तत्कालीन श्रम प्रवर्तन अधिकारी की एक निरीक्षण आख्या फाइलों में उपलब्ध है, जिसमें बच्चों के माता-पिता के उल्लेख न किए जाने व बच्चों को मीनू के अनुरूप खाना न दिए जाने का उल्लेख किया गया था। इसके अलावा योजना से संबंधित कोई अभिलेख उपलब्ध नहीं है।