परमसत्ता के सम्मुख दीनता से होती हमारी पहचान
अयोध्या: साधना से हम परम सत्ता को जान सकते हैं पर उसकी प्रतीति और प्राप्ति कृपा साध्य है। यह संदेश म
अयोध्या: साधना से हम परम सत्ता को जान सकते हैं पर उसकी प्रतीति और प्राप्ति कृपा साध्य है। यह संदेश मुखर हुआ प्रतिष्ठित पीठ सुग्रीव किला में आयोजित 10 दिवसीय गुरु पूर्णिमा महोत्सव के आठवें दिन। महोत्सव के क्रम में संयोजित प्रवचन सत्र को संबोधित करते हुए रामकुंज के महंत डॉ. रामानंददास ने राम वनगमन के प्रसंग का विवेचन किया। वन से गुजरते हुए भगवान राम मुनियों के आश्रम पर जाकर उन्हें प्रसन्नता प्रदान कर रहे हैं। गुरु अगस्त्य के आदेश से प्रभु की तलाश में अभिशप्त जीवन जी रहे सुतीक्ष्ण ऋषि को जब यह ज्ञात होता है कि भगवान उनसे मिलने आ रहे हैं, तो आनंद विभोर होकर वे भगवान की तीव्रता से प्रयाण करते हैं पर कुछ ही देर में उनका उत्साह ठंडा पड़ जाता है, वे विचार करते हैं कि उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि भगवान स्वयं उनसे मिलने आएं। उधर राम को अपनी अंतर्प्रज्ञा से सुतीक्ष्ण की गति का भान होता है और वे स्वयं पूरी त्वरा के साथ सुतीक्ष्ण से मिलने के लिए बढ़ते हैं। सुतीक्ष्ण से भगवान का मिलन भगवान की करुणा-कृपा का परिचायक है। समारोह का संयोजन कर रहे पीठ के उत्तराधिकारी जगद्गुरु विश्वेश प्रपन्नाचार्य ने सुतीक्ष्ण को सर्वोपरि बताया। यह कहकर कि सुतीक्ष्ण साधना में शिखर पर हैं पर भगवान के संदर्भ में उनकी दीनता साधारण जीव जैसी है और परमात्मा की प्राप्ति के लिए यह बुनियादी गुण हैं, हम चाहें जितने भी बढ़े-चढ़े हों पर परम सत्ता के सम्मुख हमारी पहचान दीनता से ही तय होती है। भगवान को यूं ही नहीं दीन वत्सल कहा गया है। महोत्सव के क्रम में संचालित रासलीला में भी ऐसा ही विषय अभिव्यक्त हुआ। लीला में गोपाल भक्त का जीवन चरित्र प्रस्तुत किया गया। गोपाल की सादगी देखकर भगवान अपने परिकर सहित उसके सम्मुख उपस्थित होने लगे। गुरु पूर्णिमा महोत्सव अन्य दिनों की तरह विष्णु महायज्ञ एवं अष्टोत्तरशत वाल्मीकिय रामायण से भी गौरवांवित रहा। बुधवार की देर शाम शास्त्रीय संगीत की धारा भी प्रवाहित हुई।