दीवानों के प्रति बयां होती दीवानगी
अयोध्या: रामनगरी की जुड़वा नगरी फैजाबाद वही भूमि है, जहां 19 दिसंबर 1927 को काकोरी कांड के नायक अशफाक
अयोध्या: रामनगरी की जुड़वा नगरी फैजाबाद वही भूमि है, जहां 19 दिसंबर 1927 को काकोरी कांड के नायक अशफाक उल्लाह ने फांसी का फंदा चूमा। इस विरासत के चलते अशफाक ही नहीं उनके प्रिय सखा एवं मार्गदर्शक रामप्रसाद बिस्मिल भी जुड़वा नगरी में रचे-बसे हैं। उनके बलिदान दिवस पर करीब आधा दर्जन स्थानों शहीद-ए-वतन को याद किए जाने के साथ बिस्मिल के प्रति भी अनुराग फलक पर होता है।
ओज के प्रतिनिधि कवि जयप्रकाश चतुर्वेदी की कृति अमर शहीद बिस्मिल भी आजादी के दीवानों के प्रति दीवानगी बयां करती है। 116 छंदों से युक्त इस कृति के केंद्रीय विषय बिस्मिल हैं पर अशफाक और कुछ अन्य क्रांतिकारियों के प्रति भी पूरी आत्मीयता अर्पित है। मिसाल के तौर पर यह पंक्ति है- राम का साहस देख युवक एक आगे बढ़कर आया, देशभक्त बालक ने अपना अशफाक नाम बतलाया। शाहजहांपुर का बालक वह था गंभीर अनोखा, श्रीराम ने इसको गले लगाकर भर नैनों से देखा।
'अमर शहीद बिस्मिल' उस इतिहास पर भी प्रकाश डालती है, जब अशफाक के ही प्रभाव में आकर रामप्रसाद ने अपने नाम के साथ बिस्मिल की उर्फियत धारण की। मिसाल के तौर पर यह पंक्ति है- कहा राम ने वही करूंगा, जिस पर तू हो राजी, तब उर्दू में नाम उन्होंने बिस्मिल था अपनाया। दोनों क्रांतिकारियों की मित्रता आगे इन पंक्तियों में अभिव्यक्त है- दोनों मित्रों ने देश मुक्ति का संकल्प लिया था भारी, क्रांतिकारी संगठन हेतु अब होने लगी तैयारी। कृति में काकोरी कांड के इतिहास पर भी रोशनी डाली गई है- चंद्रशेखर आजाद, लाहिड़ी, रोशन ¨सह दीवाने, अशफाक, खत्री रामकृष्ण व मन्मथ जी परवाने, योगेश चटर्जी, विष्णशरण, भूपेंद्रनाथ भी आए, बिस्मिल रामप्रसाद शीघ्र ही नेता गए बनाए। कृति में काकोरी कांड का ओज से ओत-प्रोत चित्रण है- नौ अगस्त सन् 25, रात की अजब कहानी, ब्रिटिश राज को धूल चटाने चले वीर बलिदानी।
फांसी की सजा पाने के बाद कांतिकारियों की दशा का वर्णन भी प्रवाहपूर्ण है- फांसी की सजा मिली जब सबको, क्रांतिवीर हर्षाए, बैठ अदालत के सम्मुख ही गीत खुशी के गाए।
कुल आठ सर्गों के काव्य प्रबंध में सातवां सर्ग कारा नाम से है। इसकी शुरुआत में ही रचनाकार बिस्मिल एवं अशफाक की ²ष्टि पर प्रकाश डालते हैं- देश भक्त इन क्रांतिवीर को भारत मां थी प्यारी, कारा भी है मां की गोदी समझ रहे व्रतधारी। फांसी के पूर्व की स्थित पर रोशनी डालते हुए कविता कुछ इस तरह आगे बढ़ती है- इस तरह न्याय की आशाओं के दीप बुझे थे सारे, फैल गए थे न्याय के पथ पर गहन घोर अंधियारे। अंतिम सर्ग में फांसी का वर्णन कातर करने के साथ बिस्मिल और उनके साथियों की दिव्यता का भी संवाहक है। यह पंक्ति गौर करने लायक है- जीवन का अंतिम क्षण लेकर क्रूर काल था आया, चले मृत्यु के पावन पथ थे अछ्वुत संन्यासी।
साहित्यकार एवं ¨चतक जय ¨सह चौहान के अनुसार चतुर्वेदी की कृति अपने मूल्यों के कारण ही नहीं शिल्प के कारण भी धरोहर है और बिस्मिल, अशफाक के साथ यह कृति भी कालजयी है।