सांस्कृतिक वैभव का साक्षी है झूलनोत्सव
अयोध्या: सावन के उत्तरार्द्ध में मनाया जाने वाला झूलनोत्सव अपनी आध्यात्मिक-धार्मिक परंपरा के साथ सांस्कृतिक वैभव का भी वाहक होता है। जिस हिंडोले में भगवान को झुलाया जाता है, वह न केवल लकड़ी की आकर्षक पच्चीकारी का नमूना होता है बल्कि कई मंदिरों के हिंडोले सोना-चांदी जैसी कीमती धातुओं के हैं।
मिसाल के तौर पर वैष्णव भक्तों की प्रधानतम पीठ कनक भवन का झूला है, जो क्विंटल भर से अधिक चांदी से निर्मित है और जिस पर सोने का आकर्षक काम भी है। एक अन्य पीठ राजगोपाल मंदिर कभी अपने वैभव के लिए जानी जाती थी और उसी जमाने का निर्मित हिंडोला इस वैभव की आज भी तस्दीक करता है। चांदी का भरी-भरकम हिंडोला पहली नजर में ही आंखों में बस जाता है। रामवल्लभा कुंज यूं तो वीतराग संतों के अखाड़े के रूप में विख्यात रहा है पर यहां के आचार्यो की साधना का प्रताप ऐसा फैला कि यह पीठ वैभव की मिसाल बन गई। आश्रम की ही परंपरा की शिष्या पुतली बाई ने आजादी के पूर्व ही भगवान को चांदी का हिंडोला अर्पित किया। चांदी के दो विशाल स्तंभों पर टिका चांदी का ही हिंडोला समृद्धि के साथ कला का भी नमूना साबित होता है। रामवल्लभाकुंज के अधिकारी राजकुमारदास कहते हैं कि भगवान के हिंडोले का आंकलन उसके भौतिक मूल्य से नहीं किया जा सकता अपितु यह भक्त का समर्पण है और रामवल्लभाकुंज में ऐसे भक्तों की कमी नहीं रही, जिसके लिए भगवान के लिए कोई हिंडोला या अन्य कीमती सामग्री की बजाय पूरा का पूरा जीवन भगवान के प्रति समर्पित रहा है। मारवाड़ी श्रद्धालुओं के ट्रस्ट द्वारा संचालित जानकी महल अपनी समृद्धि के लिए जाना जाता है और इसकी तस्दीक वहां चांदी के हिंडोले से भी होती है।
लक्ष्मण किला, दशरथ महल बड़ा स्थान, रंग महल आदि मंदिरों का हिंडोला तो लकड़ी का ही है पर सैकड़ों वर्ष की अपनी प्राचीनता एवं भव्य कलात्मकता की वजह से उनका भी विशिष्ट वैभव है, जो झूलनोत्सव के लिए तैयार होकर भक्तों को विमोहित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। नगरी के हजारों मंदिरों में से ऐसे मंदिरों की बड़ी संख्या है, जहां का हिंडोला झूलन की परंपरा के अनुरूप सैकड़ों वर्ष पुराना है और अपनी प्राचीनता, बनावट एवं मजबूती की दूष्टि से पुरातात्विक महत्व का साबित होता है।
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विकसित हुई संगीत की भरी-पूरी परंपरा
अयोध्या: झूलनोत्सव भांति-भांति के आकर्षक हिंडोलों के साथ संगीत संध्या की दृष्टि से भी अविस्मरणीय होता है। झूलनोत्सव पर सजने वाली संगीत संध्या ने न केवल चुनिंदा कलाकारों बल्कि संगीत की भरी-पूरी परंपरा को जन्म दिया है। पागलदास की उर्फियत से संगीत के क्षितिज पर चमकने वाले पखावज सम्राट स्वामी रामशंकरदास की शुरुआत झूलनोत्सव पर सजने वाली संगीत संध्या से ही हुई और भगवान को कला अर्पित करने के साथ स्वयं को आजमाते हुए उन्होंने फर्श से अर्श तक का सफर तय किया। पं. भगवतकिशोर जी व्याकुल भी ऐसा ही नाम है, जिन्होंने भगवान को अपनी कला अर्पित करते हुए संगीत के राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी पहचान बनाई। इसी क्रम में पं. रामआसरे का भी नाम अविस्मरणीय है, सामने वाले को अपनी प्रस्तुतियों से मोहित करने में जिसका सानी ढूंढ़ना मुश्किल है। यह परंपरा आज भी आचार्य गौरीशंकर, रामकिशोरदास आदि दिग्गजों के रूप में जीवंत है। शास्त्रज्ञ आचार्य मिथिलेश नंदिनीशरण के अनुसार मंदिरों में संगीत की परंपरा विकसित होना शरीर के साथ प्राण के संबंध की तरह स्वाभाविक है, क्योंकि ईश्वर की ओर बढ़ने के साधनों में संगीत प्रमुख है।