आयुर्वेद की उपेक्षा को दुर्भाग्यपूर्ण मानते हरिप्रसाद
डा. कुश चतुर्वेदी, इटावा :
जीवन भर आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार से जुड़े वैद्य हरिप्रसाद द्विवेदी स्वीकार करते हैं कि सरकार और आयुर्वेद चिकित्सा की डिग्री प्राप्त करने वाले लोगों की उपेक्षा के कारण देश में आयुर्वेद को वह स्थान नहीं मिल सका। जिसके लिए वह पात्र हैं।
श्री द्विवेदी ने बीआईएमएस में जब प्रवेश लिया। तबसे ही उनके मन में आयुर्वेद व्यवसाय नहीं मिशन बनकर रहा। अपने पिता और प्रख्यात वैद्य उमाशंकर द्विवेदी की विरासत के साथ साथ अपने गुरु स्वामी विद्यानंद सरस्वती के विचारों का उनके जीवन में इतना प्रभाव पड़ा कि जिला आयुर्वेद एवं यूनानी अधिकारी के राजपत्रित पद पर रहते हुए उन्होंने शुद्ध आयुर्वेदिक दवाओं से ही उपचार की पद्धति को बनाए रखा।
आज भी जंगलों में जाकर जड़ी बूटी एकत्रित करके वैद्य द्विवेदी रसायन स्वयं बनाते हैं और योग तैयार करते हैं। अखिल भारतीय बीआईएमएस विद्यार्थी परिषद की प्रदेश शाखा के अध्यक्ष से इनके सामाजिक जीवन की शुरुआत इस तरह से हुई कि आयुर्वेद के लोगों को जोड़कर आज भी वह वैद्य समाज का सबल प्रतिनिधित्व करते हैं। वह बताते हैं कि आज आयुर्वेद एक दोराहे पर खड़ा है। जहां फार्मेसी हावी है, रसायन का महत्व कम होता जा रहा है।
उन्होंने कहा कि स्वर्ण चिकित्सा के योग जितने कारगर हैं। उतनी तेज गति से लाभ पहुंचाने वाली कोई पद्धति अब तक नहीं है। अस्थि संधानक हड़जोड़ के लेप से हड्डी एक सप्ताह में जुड़ जाती है। उन्होंने कहा कि वनों के विनाश ने अनेक महत्वपूर्ण औषधियों से समाज को वंचित कर दिया। सबसे अधिक दुखद तो हिरण का विलुप्त होना है। जिसकी वजह से कस्तूरी जैसी औषधि नहीं मिलती। कस्तूरी वह औषधि थी जिससे मरते हुए व्यक्ति में थोड़ी देर के लिए प्राण फूंके जा सकते हैं। प्रबाल और वंश लोचन जैसी दवाएं आज नहीं मिल पाती। जो दवाएं बाजार में आ रही हैं उनकी गुणवत्ता उतनी नहीं होती जितनी होनी चाहिए। कृत्रिमता में मौलिकता होती भी नहीं है।
इटावा जनपद के क्योंटरा ग्राम में 1933 में वैद्य उमाशंकर लक्ष्मी देवी के आत्मज के रूप में जन्मे हरिप्रसाद द्विवेदी ने इटावा जनपद ही नहीं बृज क्षेत्र में भी आयुर्वेद के शिविर लगाकर लोगों का निशुल्क इलाज करने का अभियान चलाया। इन दिनों यह मथुरा में विरक्त कुटी परिक्रमा मार्ग के सामने गोवर्धन में शिविर लगाकर प्रत्येक माह की चतुर्दशी और पूर्णिमा को उपचार किया करते हैं।
आयुर्वेद सम्मेलनों के माध्यम से वैद्य समाज में परंपरागत औषधियों के प्रति दृढ़ता लाने का काम करते रहे हैं। अपने मरीजों के लिए स्वयं जड़ी बूटी खोजकर दवाएं तैयार करना, रसायन बनाना, भस्म बनाना इनकी वृत्ति में समाहित है। लगभग 80 वर्ष की अवस्था में भी आयुर्वेद इनके जीवन में व्यवसाय नहीं पूजा से बढ़कर है। वह बताते हैं कि जब तक आयुर्वेदाचार्य, आयुर्वेद रत्न, आयुर्वेद भूषण, आयुर्वेद मार्तण्ड जैसी उपाधियां थीं लोग वैद्य लिखने में गौरव का अनुभव करते थे। जबसे बीएएमएस आया तबसे आयुर्वेद के चिकित्सकों ने एलोपैथी को अपने साथ जोड़कर देश की परंपरागत पद्धति की उपेक्षा करना शुरू कर दी। उनका दावा है कि कोई भी आला मरीजों का उतना सटीक आंकलन नहीं कर सकती। जितना नाड़ी ज्ञान से हो जाता है।
आयुर्वेद में नब्ज का ज्ञान ही मरीजों के लिए सबसे बड़ा संबल होता है। बीएएमएस चिकित्सकों ने वैद्य लिखना ही छोड़ दिया। डाक्टर लिखने के मोह ने उन्हें वैद्य के सम्मान पूर्ण अलंकरण से दूर कर दिया। जो दुखद है। 1991 में उत्तर प्रदेश सरकार के वरिष्ठ चिकित्साधिकारी के पद से सेवानिवृत्त डा. द्विवेदी अभी भी निरंतर आयुर्वेद की जड़ी बूटियां तैयार करने तथा नई पीढ़ी के चिकित्सकों को मार्गदर्शन देने में पूरे समर्पण के साथ लगे हैं।
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