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जहां नहीं होती पढ़ाई, वहां केंद्र बनवाने को लड़ते लड़ाई

जागरण संवाददाता, एटा : जिले के आधे से अधिक माध्यमिक स्कूलों की स्थिति का परि²श्य पहले बताया जा चुका

By Edited By: Published: Thu, 28 Jul 2016 11:33 PM (IST)Updated: Thu, 28 Jul 2016 11:33 PM (IST)
जहां नहीं होती पढ़ाई, वहां केंद्र बनवाने को लड़ते लड़ाई

जागरण संवाददाता, एटा : जिले के आधे से अधिक माध्यमिक स्कूलों की स्थिति का परि²श्य पहले बताया जा चुका है। जहां मान्यता लेने के बाद पढ़ाई-लिखाई नहीं सिर्फ प्रवेश और परीक्षा दिलाई जाती है। अब बात परीक्षा केंद्र बनवाने की शुरू करें तो जिन स्कूलों में शिक्षण के कोई मानक नहीं हैं, वही स्कूल केंद्र बनवाने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगाते हुए खूब लड़ाई लड़ते हैं। राजनेताओं से लेकर बोर्ड कार्यालय तक सिफारिशों का जोर ही नहीं बल्कि अधिकारियों की जेबें भरने में भी पीछे नहीं रहते।

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माध्यमिक शिक्षा के संसाधन भले ही पिछले 10 वर्षो में तेजी के साथ बढ़े हैं। जहां राजकीय स्कूल 7 से 16 तक तो वहीं सहायता प्राप्त 46 विद्यालय हैं। इसके अलावा निजी स्कूलों का ही वर्चस्व नजर आता है। जिनकी संख्या 480 तक पहुंच चुकी है। हालांकि कुछ निजी स्कूलों ने अच्छी शिक्षण व्यवस्था के जरिए दूसरे स्कूलों को आइना दिखाने का काम किया है, लेकिन अधिकांश निजी स्कूलों का हाल सिर्फ कारोबार करने तक ही उद्देश्य रखता है। जो स्कूल प्रवेश के समय विद्यार्थियों से मनमानी फीस वसूलकर उन्हें पास कराने की गारंटी देते हैं, तो उनके लिए अपने स्कूलों को परीक्षा केंद्र बनवाना मजबूरी बन जाता है। केंद्र बनवाने के लिए प्रक्रिया शुरू होते ही जिस तरह की मारामारी मच जाती है, उस हाल में तो निजी स्कूल संचालक ही एक-दूसरे के सामने आ जाते हैं। अपने स्कूल को केंद्र बनवाने के लिए पहले तो आपस में शिकायतों का दौर शुरू होता है वह चाहें मानक पूरे न होने को लेकर हो या फिर और कोई कमी। जिला स्तर पर ही अपने स्कूलों को केंद्र बनवाने के लिए क्लीन चिट दिलाए जाने को साम, दाम, दंड, भेद सबका सहारा लिया जाता है। कोई नेताओं की सिफारिश तो यहां तक प्रतिष्ठा से जोड़कर कुछ स्कूल संचालक बोर्ड कार्यालय तक जुगत लगाने में पीछे नहीं रहते। इस तरह के हाल में वह स्कूल भी परीक्षा केंद्र बन जाते हैं जहां ढंग से परीक्षार्थियों के बैठने के लिए फर्नीचर के अलावा अन्य व्यवस्थाएं पूरी नहीं होती। कुछ राजनीतिक दखलंदाजी और फिर विभागीय अधिकारियों की स्वार्थपूर्ति परीक्षाओं की नींव को ही गड़बड़ा देती हैं। इसके बाद इन केंद्रों पर क्या होता है यह तो साफ है कि नकल कराने की बोलियां, डंडे के बल पर वसूली, असलाहों का प्रदर्शन सहित शिक्षा की सुचिता को तार-तार करने वाले ²श्य नजर आते हैं। इस तरह परीक्षा का बिगड़ा रूप भी शिक्षा के लिए बड़ा शूल है।

काली सूची वालों ने खोजा नया रास्ता

जो विद्यालय काली सूची में डाल दिए जाते हैं, उन्हें क्लीन चिट पांच साल बाद ही मिलती है। ऐसे में कई स्कूल संचालक ऐसे हैं जो नए स्कूल खोलकर नई मान्यता कराकर दो साल में ही केंद्र बन जाते हैं और उसी धंधे में जुटते हैं। उनकी सोच ब्लैक लिस्टेड स्कूल को केंद्र बनवाने के बजाए नए स्कूल की रहती है। वैसे भी कई लोग ऐसे हैं जिनके एक नहीं कई स्कूल हैं।

बड़ी सिफारिश पर बड़ा खेल

वैसे तो पिछले वर्षो ब्लैक लिस्टेड स्कूलों को केंद्र बनाने में अधिकारी और बोर्ड दोनों ने ईमानदारी दिखाई, लेकिन पिछले वर्षो बड़ी सिफारिशों पर दो ब्लैक लिस्टेड स्कूल केंद्र बनाए गए। जिसके पीछे खुद शासन ने बालिका परीक्षार्थियों को सुविधा देने की बात कही। साफ है कि शासन स्तर तक स्कूल संचालक जोर लगाने में पीछे नहीं रहते।

कहते हैं लोग

पहले परीक्षा केंद्र बनवाने के नाम पर स्कूल पैसा खर्च करते हैं और फिर केंद्र बन जाए तो बच्चों से पैसा वसूल करते हैं। यहां तक कि इस वसूली में गरीब बच्चे पूरी तरह से पिस जाते हैं। ऐसी स्थिति पर अंकुश लगना चाहिए।

राजकुमार

जो बच्चे नकल नहीं करना चाहते वह भी परीक्षा केंद्रों पर पहुंचकर इन स्कूल संचालकों के उत्पीड़न का शिकार होते हैं। हर साल पैसे के लिए उनकी पिटाई, अभद्रता जैसी स्थिति शिक्षा के हालातों पर दाग ही है।

नारायण ¨सह

जो स्कूल परीक्षा केंद्र बनने के लायक नहीं होते फिर भी उन्हें अधिकारी अपनी जेबें भरकर केंद्र बनाते हैं। ऐसे अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई तो हो ही। वहीं स्कूल संचालकों की वसूली पर भी रोक लगे।

विनोद कुमार


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