खेती सुहानी, बचता पानी
अनिल गुप्ता, एटा: पानी ने आंखों में पानी ला दिया। पांच साल पहले पानी लाने वाले बादल रूठ गए तो सूखे क
अनिल गुप्ता, एटा: पानी ने आंखों में पानी ला दिया। पांच साल पहले पानी लाने वाले बादल रूठ गए तो सूखे के हालात थे। खेतों में दरारें पड़ने लगीं, और इन्हें देखकर किसानों के दिल में दर्द होता तो घर की महिलाओं की आंखों में आंसुओं के झरने। ऐसे में एक व्यक्ति ने उनकी पीड़ा देखी, तो मन विचलित हो उठा। आखिर नजर डाली तो महसूस हुआ कि किसान जल संरक्षण पर ध्यान नहीं देते। जल का अतिदोहन कर पहले उसे बर्बाद करते हैं। अगर प्रकृति साथ न दे तो आंसू बहाते हैं। ऐसे में खेती भी हो जाए और जल संरक्षण भी इसके लिए डॉ. वीरेंद्र सिंह ने कमान संभा ली।
वर्ष 2008-09 में सूखे के हालात किसानों के सामने आए। ऐसे में गरीब किसानों के दर्द को दूर करने के लिए आरबीएस कॉलेज, आगरा से जुड़े कृषि विज्ञान केंद्र अवागढ़ के उद्यान विज्ञानी डॉ. वीरेंद्र सिंह ने आगे कदम बढ़ाया। उन्होंने खेती में जल संरक्षण को लेकर अध्ययन किया। यहीं से राह निकली। वह तब से किसानों को पानी बचाने और संचयन के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
खेती में पानी की बचत के लिए उनके पास स्थानीय जरूरत और किसानों की आर्थिक स्थिति के मुताबिक कई फॉर्मूले हैं। गरीब तबके के किसानों को वह छोटी क्यारी में सिंचाई की प्रेरणा देते हैं। संसाधन युक्त किसानों को डिप सिंचाई और स्प्रिंक्लर विधि सिंचाई के संसाधन जुटाने के तरीके बताते हैं। इसे स्थापित करने में भी मदद देते हैं। वह कहते हैं कि इन छोटे-छोटे उपायों से ही 50 फीसद तक पानी की बचत हो जाती है।
उन्होंने कुछ किसानों को कच्ची मिट्टी की नालियों के जरिए पानी पहुंचाने के बजाय खेतों में प्लास्टिक के पाइपों के जरिए पानी पहुंचाने के लिए भी तैयार किया। यही नहीं सबसे बड़ा उपाय उन्होंने रेन हार्वेस्टिंग को लेकर कराया। जल स्तर घटने से खराब होने वाले बो¨रग का उपयोग जल संचयन के लिए करने को प्रेरित किया। बड़ी संख्या में किसानों ने इस उपाय को अमल में लाना शुरू कर दिया है।
चाहे कृषि विज्ञान केंद्र पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों की श्रृंखला हो या गांवों में किसान जागरुकता के लिए होने वाली गोष्ठियों और प्रशिक्षणों हों, जल संरक्षण की प्रेरणा के लिए सदा उनकी उपस्थिति रहती है। वहां जल संरक्षण का पाठ उनकी प्राथमिकता पर रहता है।
पानी की चुनौतियों को बताते हुए वह किसानों को गोष्ठियों में भी जगाते हैं। वह कहते हैं कि कम पानी में खेती हो सकती है। जरूरत से ज्यादा पानी का प्रयोग किसानों के लिए अधिक लागत के रूप में नुकसानदेय है। साथ ही भूजल स्तर के लिए भी बढ़ते खतरे में सहायक है।
जागरुकता बढ़ी तो मिलने लगे परिणाम
कुछ ही सालों में किसान तबके को जागरूक करने के सार्थक परिणाम सामने आए हैं। जलेसर में खारा पानी क्षेत्र के किसानों ने सिंचाई के तरीके बदलने शुरू किए हैं। शाहनगर टिमरुआ, सकरौली, मुरसमा आदि कई गांव ऐसे हैं, जहां किसान स्प्रिंक्लर सिंचाई के जरिए जल संरक्षण कर रहे हैं। डार्क जोन मारहरा में भी 500 से अधिक किसान पुराने बो¨रग का उपयोग जल संचयन तथा कच्ची नालियों को प्लास्टिक पाइपों का रूप देने लगे हैं।
कम पानी की प्रजाति से भी लाभ
पानी बचाने के लिए डॉ. वीरेंद्र सिंह ने किसानों को कम सिंचाई में पैदा होने वाली अनाज की प्रजातियों को बोने के लिए भी प्रेरित किया है। उनका मानना है कि कम बारिश होने की स्थिति में सिर्फ जल दोहन जरूरी नहीं, बल्कि कम सिंचाई की प्रजातियों का प्रयोग कर जल दोहन से बचा जा सकता है।