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शिक्षा का उजियारा फैलाती 'हौसले' की मशाल

जागरण संवाददाता, एटा: मास्साब उम्र का पड़ाव पार कर गए, तो सरकार ने विदाई दे दी, मगर शिक्षा के उजियारे

By Edited By: Published: Sat, 20 Dec 2014 08:18 PM (IST)Updated: Sat, 20 Dec 2014 08:18 PM (IST)
शिक्षा का उजियारा फैलाती 'हौसले' की मशाल

जागरण संवाददाता, एटा: मास्साब उम्र का पड़ाव पार कर गए, तो सरकार ने विदाई दे दी, मगर शिक्षा के उजियारे को बुजुर्ग के हौसले की मशाल अब भी जल रही है। सेवानिवृत्त होने के पांच साल बाद भी रामस्वरूप वर्मा ने स्कूल नहीं छोड़ा। उसी स्कूल में जाते हैं और बच्चों को रोज पढ़ाते हैं। नए शिक्षकों के लिए अब वे समर्पण की नजीर बन चुके हैं।

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बागवाला क्षेत्र के छोटे से गांव नगला सत्यराम निवासी रामस्वरूप वर्मा वर्ष 1973 से शिक्षक की नौकरी में आए। मुख्यालय से 12 किमी दूर अलीगंज मार्ग पर स्थित गांव सियपुर के जनकल्याण उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से अपना कार्यकाल शुरू किया। बिना वेतन के पढ़ाना शुरू किया और समर्पण से लोकप्रिय होते गए। 1991 में विद्यालय वित्त पोषित सूची में शामिल हुआ, तब कहीं जाकर सरकारी शिक्षकों की तरह वेतन मिलना शुरू किया। नौकरी के दौरान समयबद्धता और अनुशासन के लिए बच्चों के साथ-साथ शिक्षक साथियों में भी उनकी अलग पहचान थी। 2010 में सेवानिवृत हो गए।

सेवानिवृत्ति के अंतिम दिन विद्यालय में विदाई के इंतजामों को जब उन्होंने मना कर दिया, तो उनकी मंशा किसी की समझ नहीं आई। विद्यालय के शिक्षक जहां उन्हें आराम से जीवन बिताने जैसी बातें कर रहे थे, तो परिवार को भी खुशी थी कि वह घर पर ही दिन बिताएंगे। इसके बावजूद सेवानिवृत्ति के अगले दिन ही वह रोज की तरह स्कूल पहुंच गए और शिक्षण किया। उन्होंने अपनी इच्छा जाहिर की कि वे पहले की तरह बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, इसके लिए पैसों की जरूरत भी नहीं। तीन साल बाद भी वे खुद को उसी स्कूल से जोड़े हुए हैं। हर रोज स्कूल पहुंचना और वहां बच्चों को पढ़ाना पहले की तरह दिनचर्या में शामिल है।

पहले गणित और विज्ञान, अब हर विषय

सरकारी नौकरी में रामस्वरूप वर्मा गणित, विज्ञान के शिक्षक थे, लेकिन अब बच्चे जिस विषय में कमजोर लगते हैं, वे उसे ही पढ़ाना शुरू कर देते हैं। उनका कहना है कि उद्देश्य बच्चों को शिक्षित उनके जीवन का लक्ष्य है।

स्कूल के बाद अब घर में पाठशाला

एक साल तक स्कूल में पढ़ाने के बाद घर में भी दो घंटे की पाठशाला खोल ली। यहां जूनियर से लेकर माध्यमिक स्कूल के बच्चे किताबी से साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान भी लेते हैं। उनके इस सेवाभाव के लिए क्षेत्रीय लोगों की नजर में उनका काफी सम्मान है।

खुद उठाते हैं किराए का खर्च

गांव से अपने पुराने स्कूल तक जाने के लिए खुद किराया खर्च कर रहे हैं। किराए के लिए शिक्षक साथियों ने सहयोग की बात की, तो इंकार कर दिया। यहां तक कि जरूरतमंद बच्चों के लिए वह शिक्षण सामग्री भी अपनी पेंशन से जुटाने में परहेज नहीं करते।

सहयोग ने बढ़ाई हिम्मत

सेवानिवृत्ति के बाद से फिर स्कूल में जाने के निर्णय को लेकर शिक्षक रामस्वरूप वर्मा ने जब परिवार को बताया, तो उनकी पत्‍‌नी ने भी सकारात्मक भूमिका निभाई। इसके बाद तो उनकी हिम्मत शिक्षा के उजियारे को और बढ़ गई।

सामाजिक कार्यो में भी पीछे नहीं

बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के अलावा वह उन्हें एक ही नसीहत देते हैं कि कभी नकल मत करना। मेहनत के बूते ही लक्ष्य हासिल होता है। अभिभावकों को भी वह जागृत करते हैं कि बच्चों को न नकल के प्रति प्रेरित करें और न ही सहयोग दें। शिक्षा के प्रति समर्पण के साथ गांव के युवाओं को राय देने तथा गरीबों को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने को फॉर्म भरने तथा आगे की राह बताने में शेष समय भी गुजार देते हैं।


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