स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका निभाने वाले बागीश को भूला प्रशासन
बाराबंकी : भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने में महती भूमिका निभाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का परिवार प्रशासनिक उपेक्षा से आहत है। स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व आते ही सेनानी की वृद्ध पत्नी आजादी के पूर्व की मीठी कड़वी यादों को सहेजने में जुट जाती है। जागरण के साथ बातचीत में उनकी व्यथा में आंसू भी छलके। साथ ही 15 अगस्त 1947 को आजादी का पहला राष्ट्र ध्वज फहराने की याद उन्हे गौरवान्वित करती है।
विदित हो कि वर्ष 1913 को फतेहपुर तहसील के मोहम्मदपुर खाला गांव निवासी मुन्नीलाल के पुत्र पं. बागीश दत्त मिश्र ने जन्म लिया। शुरुआती दौर में ही बागीश के तेवर अंग्रेजी शासन के प्रति बगावती थे। क्षेत्रीय जनता को हमेशा अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने का संदेश देते रहे। गांधी जी के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने 21 वर्ष की आयु में ही गांधी जी के साथ दांडी यात्रा में सहभागिता की। तथा चार महीने तक वह अपने घर से फरार रहे। उनकी वृद्ध पत्नी शांति देवी मिश्रा बताती है कि उन्हे परिवार से ज्यादा देश की चिंता रहती थी। तथा बिंदौरा रेलवे स्टेशन पर डकैती कांड में नाम आने के उपरांत अंग्रेजी शासन ने बड़ी यातनाएं दी। उनके कच्चे मकान का एक-एक ईटा खोद डाला। लेकिन बागीश के स्वाभिमान को वह झुका न सका। वृद्ध पत्नी आगे कहती है कि आजादी के बाद प्रशासनिक स्तर तक पेंशन तो उन्हे सरकार द्वारा दी गई। लेकिन उनके नाम पर आज भी गांव में आसपास न कोई स्मारक स्तंभ है। और न ही कोई द्वार बनवाया गया है। प्रशासनिक उपेक्षा से आहत शांति देवी 1947 के आजादी के प्रथम ध्वजा रोहण को याद करके एकाएक गौरवान्वित हो जाती है तो दूसरी ओर राष्ट्रीय पर्व पर प्रशासन पर कभी भी याद न करने के लिए दुखी हो जाती है।
परिवार भी आहत : स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के परिवार के सदस्य भी उपेक्षा से आहत है। पुत्र राहुल मिश्र, शंशाक मोहन मिश्र व विनोद मिश्र कहते है कि कम से गांव में उनके नाम पर द्वार व स्तंभ अवश्य बनवाया जाना चाहिए। पूर्व में जनप्रतिनिधियों ने आश्वासन दिए मगर वक्त बीतते ही सभी भूल गए।