गलियां दो
होती। सालों साल पिता हबीब को याद करते और रो पड़ते। पिता अपने हैडमास्टर साहब मौलवी ख़ुदा बख़्श क
होती।
सालों साल पिता हबीब को याद करते और रो पड़ते।
पिता अपने हैडमास्टर साहब मौलवी ख़ुदा बख़्श को भी कभी नहीं भूले थे। वे पिता को बड़ी आत्मीयता से मुल्तानी बोली में 'बचड़ा' कहते। बचड़ा मतलब बच्चा। बचड़ा मतलब प्यारा बच्चा। पिता, मौलवी ख़ुदा बख़्श के सबसे प्यारे, सबसे करीबी और मुंहलगे तालिबेइतम यानी छात्र थे।
पिता ने महमूदकोट में दसवीं पास की तो सबसे ज्यादा खुशी मौलवी ख़ुदाबख़्श ने दोनों हाथ उठाकर पिता के ख़ैर मागी थी।
उस मौलवी खुदा बख़्श के अपनेपन को किस संदूक में रखकर साथ ले आते जिन्होने इल्म के साथ-साथ शायरी का 'उरुज़' भ्ीा सिखाया और जज्बातों की लौ पैदा की।
मौलवी खुदा बख़्श ने उर्दू के लफ़्जों को बरतने की कला सिखाई। हिसाब सिखाया। अंग्रेजी के टेंस सिखाए तो तरही मिसरे पर किस तरह पूरी गज़ल लिखी जाए यह हुनर भी अदा किया। स्लेट पर मिसरा लिखवाते शेर पूरा करने के लिए गिरह लगवाते। शेर हो जाता तो बड़ा फ़º होता मौलवी ख़ुदा बख्श को।
एक तरही मिसरा तो बड़े खिलदड़े किस्म का था। बहुत कोशिश के बावजूद मौलवी खुदा बख़्श गिरह न बाध सके। उन्होंन पिता को बुलाया, ''बचड़ा, एक मिसरा लिख और गिरह बाध'' यानी शेर पूरा कर। मिसरा रूमानियत और मसखरेपन से भरपूर - 'दिलेनादा को आदत है पराए घर में जाने की।'
पिता ने स्लेट पर मिसरा लिखा। क्लास रूम में अपनी सीट पर जाकर बैठ गए। मिसरा और छात्रों ने भी लिखा। लेकिन शेर मुकम्मल किया सबसे पहले पिता ने। शेर बेशक हलका पुलका थो लेकिन था दिल फ़रेब। शेर यूं हुआ था-
बहुत मारा बहुत पीटा बहुत झाड़ा - बहुत झपटा -
दिलेनादा को आदत है पराए घर में जाने की।
शेर पढ़कर, हैडमास्टर साहब, मौलवी ख़ुदाबख़्श ने पिता की पीठ थपथपाई। खुश हुए।
मौलवी ख़ुदा बख़्श उच्च कोटि के विद्वान और शानदार अध्यापक थे। किसी-किसी दिन वे उर्दू पढ़ाते-पढ़ाते कोई ऐसा शेर सुनाते जिसमें जीवन दर्शन होता। शेर मुश्किल होता। मौलवी ख़ुदा बख़्श उसकी तश्रीह ;व्याख्याद्ध करते हुए डूब-सा जाते।
एक दिन उन्होने शेर पढ़ा-
तुमही सच-सच ... वे कौन था शीरीं के पैकर में कि मुश्ते-ख़ाक की हसरत में कोई काहकन क्यों हो?
प्रेम की प्रबल भावनाओं को व्यक्त करना शेर जिसमें फ़रहत का कहीं जि़क्त्र नहीं। लेकिन असल किरदार तो वही है जो शीरी के लिए पहाड़ काटता है।
लेकिन अचरज तो इस बात है कि शीरी तो एक मुट्ठीभर राख ही थी और उसके लिए पहाड़ काटने का हौसला! नहीं! बात कुछ और है। परवरदिगार, तू ही सच-सच बता। शीरी के मेस कही तू खुद तो नहीं था।
मौलवी ख़ुदा बख़्श जब शेर की व्याख्या करते तो कितने सारे मंज़र खुलते चले जाते। शेर बहुत बड़े आख्यान में बदल जाता।
मौलवी खुदा बख्श पढ़ाते नहीं थे, ज्ञान देते थे। वही ज्ञान देनेवाले मौलवी खुदा बख्श कहीं पीछे छूट रहे थे। हबीब पीछे छूट रहा था और कादरबख्श थानेदार। लहीम-शहीम शख्सियत के मालि, रुखसत के वक्त पिता को बेबर नजरों से देखते रहे।
ये वही कादरबख्श थानेदार थे, जिन्होंने पिता को गिरफ्तार होने से बचाया था। पिता शायर थे और अफसाना निगार भी थे। उन्होने एक अफसाना लिखा - 'बड़े दिन की छुट्टिया' अंग्रेजी हकूमत के खिलाफ, आग उगलता अफसाना। नतीजा! अखबार जब्त और पिताजी की गिरफ्तारी के वारंट।
थोनेदार कादरबख्श को करनी थी कार्रवाई। वो जानते थे प्रीतम लाल को गिरफ्तार कर लिया तो उम्रभर सड़ता रहेगा जेल में। कुछ भी हो। प्रीतम लाल गिरफ्तार नहीं होना चाहिए। चुनाचे, वो हरकत में आए। तुरंत भेजा अपना भरोसेमंद कारिन्दा प्रीतम लाल के घर, इस 'रुक्के' के साथ कि कितनी जल्दी हो, वो शहर छोड़कर कहीं चला जाए।
पिता अपने दोस्त हबीब के साथ महमूद कोट छोड़कर कोट अदू चले गए। कई दिन वहीं छुपकर रहे।
कादरबख्श को जब यकीन हो गया कि प्रीतम लाल घर छोड़कर कहीं चला गया है तो वे अपनी घोड़ी पर बैठकर, चंद सिपाहियों के साथ पिता के घर आए, धावा बोला। घर की तलाशी ली। हर कमरे की। हर नुक्कड़ की। फिर खाली हाथ लौट आए। तहरीर लिखी- 'बड़े दिन की छुट्टिया लिखने वाला अफसाना निगार इस शहर में नहीं रहता।
पिता के सब दोस्त उनकी चेतना में खलबली मचा रहे थे। पिता इन सब शानदार और साफ दिल दोस्तों को छोड़कर जा रहे थे। मन भारी था आखे नम।
और कश्फी! पिता के दोस्त, ऊंचे पाये के शायर।
कश्फी मुल्तान के बड़े शायर थे और फक्कड़पन की अजीम मिसाल! एक बार महमूदकोट आए। महमूदकोट में दो सभाएं थीं। श्रीराम सभा और कृष्ण सभा। दोनो सभाओं के मोअजिज लोगों ने कश्फी साहब को दावत दी। कश्फी साहब ने उनकी दावत को तपाक से कबूल फरमाया। दोनों सभाओं के सरकरदा और आम लोग। पूरा महमूद कोट ही उठकर चला आया हो जैसे।
कश्फी साहब ने दो तवील नज्में सुनाईं- एक श्रीराम चन्द्र की आदत में तो दूसरी श्री कृष्ण और उनकी गीता पर। लोग वाह-वाह कर उठे एक-एक बंद पर मुर्करर की गुजारिश। कश्फी साहब भी बड़े दिल से नज्मे सुनाते रहे। वो गा कर नज्मे सुनाते थे। इतना अच्छा गाते थे कि उन्हें बुलबुल-मुल्तान कहा जाता था। कश्फी साहब ने वे समा बाधा कि लोग मुरीद हो गए।
महमूदकोट शहर बेशक गरीब लोगों का था लेकिन धर्म के मामले में लोग दरियादिल थे। लोग नज्मे सुनकर कश्फी साहब पर फिदा हो उठे। नज्मो का ऐसा तिलिस्म की नोटों की बारिश होने लगी। बहुत देर तक लोग कश्फी साहब पर नोट लुटाते रहे। फिर सब शान्त होकर बैठ गए।
कश्फी साहब ने नोटों से भरे थल पर जरा-सी नजर डाली। बोले, ''साहेबान, खासकर की जन्मों को आपने पसंद किया, इसके लिए मैं आप सबका शुक्त्रगुजार हूं।'' फिर कुछ पल रुके, शाइस्तगी से कहा, ''थाल में पड़े आधे पैसे राम सभा के लिए, आधे कृष्ण सभा के लिए।''
लोग स्तब्ध रह गए। एक पल के लिए खामोशी छाई रही फिर तालिया बजीं और देर तक तालिया बजती रहीं। हकीकत यह थी कि इन सभाओं में कोई कथावाचक कथा बाचने आता तो ज्यादा से ज्यादा दान देने की अपील करता रहता।
इधर, जनाब कश्फी थे नोटों से भरे थाल को छोड़कर उठ खड़े हुए। फिर हमारे पिता के साथ बाहर, शहर की तरफ घूमने निकल पड़े। बाजार से गुजरते हुए कश्फी साहब ने हमारे पिता से कहा, ''अरमान! ;हमारे पिता का तखल्लुस अरमान थाद्ध एक दुअन्नी देना लैम्प की सिगरेट का एक पैकेट खरीदना है। मेरे पास नहीं है।''
कितनी सादगी से कह दी थी यह बात कश्फी शायर ने कि मेरे पास पैसे नहीं हैं! हमारे पिता तो भौचक नजरों से फक्कड़, अलमस्त और अजीम शायर कश्फी को देखते रहे। बंदे की जेब में दुअन्नी तक नहीं थी और नोटों से भरा थाल छोड़कर चला आया है।
पिता ने कश्फी साहब के दोनों हाथों को अपने हाथों में भरकर चमू-सा लिया।
पिता जब शहर छोड़कर रुखसत होने लगे तो मुल्तान के अजीम शायर कश्फी उनसे मिलने आए। दोनों आमने-सामने। दोनों चुप। दोनों शायर जब कहीं मिलते तो शायरी की नज्म-सी सज जाती। न सिर्फ अपने शेर बल्कि दूसरे बड़े शायरों के आश्आर! सुनाते-सुनते।
लेकिन आज न शायरी थी न शेर थे। न शायराना अंदाज न बेतकल्लुफ बातें। सिर्फ चुपचाप एक-दूसरे को देखते हुए - 'कि चुप-सी लग गई दोनों में बात करते हुए।'
फिर अचानक कश्फी बोले, ''अरमान, मैं अपनी रुह पर कितना बड़ा जुल्म कर रहा हूं कि तुम्हें नहंी रोक रहा और तुम्हें रोक लूं तो तुम्हारी जिंदगी मुश्किल में पड़ जाएगी।'
वो फिर बोले, ''हम कितने बेचैन हैं कि हम अलग नहीं होना चाहते। लेकिन हम कितने बेकौफ हैं कि सियासतदानों की सियासत हमें जुदा होने के लिए मजबूर कर रही है। जाओ अरमान! पूरा सफर मुश्किल भरा सफर होगा। मेरी नेक दुआएं तुम्हारे साथ रहेंगी। तुम सरहद के उस पार खैरियत से पहुंच जाओ।''
पिता के तमाम मुसलमान दोस्त जिद पर अड़े रहे कि तुम्हें उस पार नहीं जाने देंगे। लेकिन हालात हर दिन कशीदा और रंजीदा होते गए। वही दोस्त, यह कहने को मजबूर हुए कि आप यहा से मिल्ट्री के ट्रक में बैठकर, जितनी जल्दी हो सके कूच कर जाओ। अब हालात साजगर नहीं है।
ज्ञान प्रकाश विवेक
1875, सेक्टर-6
बहादुर गढ़ - 124507, हरियाणा