Move to Jagran APP

तब बैलगाड़ी से मेले में निकलता था कारवां

रतसर (बलिया) : भृगु मुनि की पावन तपोस्थली पर उनके शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर प्रतिवर्ष लगने वाला दद

By Edited By: Published: Tue, 24 Nov 2015 07:46 PM (IST)Updated: Tue, 24 Nov 2015 07:46 PM (IST)
तब बैलगाड़ी से मेले में निकलता था कारवां

रतसर (बलिया) : भृगु मुनि की पावन तपोस्थली पर उनके शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर प्रतिवर्ष लगने वाला ददरी मेला प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। ददरी मेला का आयोजन पूर्णिमा स्नान के बाद से ही शुरू हो जाता है।

loksabha election banner

ददरी मेले का जलवा उस समय कुछ ज्यादा ही था जब आवागमन के साधनों की कमी थी तथा सड़कें भी कम थीं। उस समय लोग बाग पैदल या बैलगाड़ी से अपने बाल बच्चों के साथ गठरी मोटरी आटा सत्तू आदि सामानों के साथ अक्षय नवमी के दिन ही घर से चल देते थे।

उस समय जनपद के दूरदराज इलाकों से आने वाली बैलगाड़ियों व लोगों का काफिला मनोरम ²श्य प्रस्तुत करता था। स्नान करने वालों का हुजूम भी एक लघु मेले का रूप धारण कर लेता था।

बड़े बुजुर्गों के संस्मरण आज भी लोगों के जेहन में रोमांच भर देते हैं। आचार्य भरत पांडेय का कहना है कि उस समय और अब में बहुत फर्क आ गया है। उस समय लोगों के बीच आपसी प्रेम, सौहार्द व भाईचारा थ जो स्नान के समय भी दिखता था अब वैसा नहीं दिखता। महिलाएं पैदल ही करबो जरूर हो भृगु मुनि दर्शन आदि लोकगीतों को गाती हुईं स्नान के लिए जाती थीं। उस समय जनपद के चारों तरफ से बैलगाड़ियों का काफिला शहर से दूर हनुमानगंज, फेफना, शंकरपुर आदि चट्टियों पर रुकता था। स्नान करने वालों का यह हुजूम लघु मेले का रूप ले लेता था तथा कई दिन तक रुकता था। मेले से वापसी के समय भी लोग इन चट्टियों पर रुकते थे।

रामेश्वर यादव का कहना है कि उस समय मेले में जनपद के प्रत्येक क्षेत्र के मशहूर हस्तशिल्प सहित अन्य दुकानें भी लगती थीं जिसे लोग काफी पसंद करते थे। उस समय सहतवार कस्बे से पालकी, बैरिया से चमौधे तक जूतों की दुकान, तुर्तीपार से पीतल के बर्तन, हनुमानगंज का ¨सहोरा, मनियर की ¨बदी, रतसर की पापड़ी, रसड़ा से मिट्टी के बर्तन व खिलौने की दुकानें, करम्मर से हथकरघे द्वारा तैयार कपड़े आदि की दुकान लगती थी। इन दुकानों की साज सज्जा ऐसी होती थी कि जो जनपद के औद्योगिक विकास का बोध कराती थी। अन्य प्रांतों से भी बड़ी संख्या में दुकानें आती थीं। अध्यापन से जुड़े राजेश मिश्र का कहना है कि मनोरंजन के जो साधन उस समय प्रयुक्त होते थे वे सभी इस मेले में मिलते थे।

इसके अलावा नौटंकी, ड्रामा, दंगल, सर्कस, गायन, वादन की टीमें भी मेले को शबाब पर पहुंचाती थीं। व्यापारी मुन्ना जी प्रसाद का कहना है कि कभी संतों का प्रवचन भी मेले की प्रमुख पहचान थी। 2000 में संतों के प्रयास से धार्मिक सत्संग प्रवचन और गंगा आरती शुरू हुई। समय के साथ साथ गंगा सरयू का संगम स्थल परिवर्तित होता रहा और मेला भी शहर की तरफ बढ़ता गया। साथ ही इसका भौतिक स्वरूप भी बदल गया। अब भौतिक चकाचौंध में मेला पूरी तरह रंगा रहता है। अब मेले में आई सामग्री और खरीद बिक्री भी वक्त के मुताबिक होने लगी है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.