नौजवानों में रोप रहे भारतीय संस्कृति के बीज
प्रदीप द्विवेदी, बागपत : देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें। अंधकार को क्यों धिक्
प्रदीप द्विवेदी, बागपत :
देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें।
अंधकार को क्यों धिक्कारें, अच्छा हो इक दिया जलायें।।
इसी जज्बात के साथ जीने वाले ओमपाल शर्मा नौजवानों में भारतीय संस्कृति के विचार रोपने में शिद्दत से जुटे हैं। सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत, अपनी संस्कृति और संस्कारों के लिए ही तो जाना जाता है, हमारी सांस्कृतिक विरासत हमें एकता और अखंडता के सूत्र में भी पिरोती है। हमारा संविधान हमें बहुत से अधिकार देता है, तो कुछ कर्तव्य पालन की भी आशा रखता है। यह हम सब के साझा प्रयास और योगदान से संभव होता है, मगर कुछ ऐसी विभूतियां होती हैं जिनके कुछ प्रयास संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों को पोषित, पुष्पित और पल्लवित करते हैं। यानी, गणतंत्र की मजबूती में अप्रतिम योगदान करती हैं। ऐसी ही विभूति हैं ओमपाल शर्मा, जिनके अभियान से लोग संस्कृति से परिचित हो रहे हैं और गणतंत्र की मजबूती में एक-एक ईंट की तरह जुड़ते जा रहे हैं।
64 वर्षीय, श्री शर्मा 1987 में शांतिकुंज हरिद्वार से जुड़े थे। यूं तो वह शांतिकुंज के हर अभियान व योजनाओं में योगदान करते रहे, मगर जब 1996 में भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा शुरू हुई तो यह उन्हें भा गया, क्योंकि यह ऐसी परीक्षा थी जिससे लोग भारतीय संस्कृति को गहराई से समझ सकते थे। अपनी संस्कृति को समझने वाला गणतंत्र की मजबूती के लिए बेहद अहम है। वह कहते हैं कि देश हमें बहुत कुछ देता है, लेकिन हम कुछ नहीं दे पाते। इसीलिए भारतीय संस्कृति की समझ की जानकारी देकर वह छोटा सा प्रयास कर रहे हैं, शायद यह देश के गौरव के लिए, लोकतंत्र व संविधान की मजबूती में भी योगदान कर सके। वह गर्व से कहते हैं 1996 से हर साल कक्षा पांच से स्नातक स्तर तक पांच से सात हजार बच्चे यह परीक्षा देते हैं, इनमें तमाम प्रतिभागी मिल रहे हैं जो अच्छे पदों पर हैं और वे इसकी सराहना करते हैं, उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाने में इस परीक्षा का भी योगदान है। इससे लगता है कि यह प्रयास देश के लिए सही दिशा में जा रहा है। उनके साथी खड़क ¨सह, कंवरपाल, रणधीर ¨सह, वेदप्रकाश इस अभियान को सफल बनाने में जीतोड़ मेहनत करते हैं। वह कहते हैं हर किसी को कोई न कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे लगे कि वह देश को भी कुछ दे रहे हैं। वह दैनिक जागरण के संस्कारशाला परीक्षा को भी ऐसा ही प्रयास मानते हैं। उनका कहना है कि संस्कार और संस्कृति का विचार रोपना देश को सबसे बड़ा तोहफा देना है।