संस्कारशाला : आत्मजागरूकता से होता है बौद्धिक क्षमता का अंकुरण
बागपत : भारत की इतनी महान एवं उदान्त सभ्यता एवं संस्कृति की धरोहर के वारिस होकर भी हम कैसे अपनी सहिष
बागपत : भारत की इतनी महान एवं उदान्त सभ्यता एवं संस्कृति की धरोहर के वारिस होकर भी हम कैसे अपनी सहिष्णुता को खोकर आदर्श विमुख हो गए हैं। बहुत आवश्यक है कि हम समझें कि कौन सी शक्तियां हैं जो हमें कमजोर बना रही हैं।
हमारे ही अंदर रहकर एक पैरासाइट की तरह। मानव का मानव बने रहना सबसे बड़ी चुनौती बन चला है। हम सब तुरंत प्रतिक्रियावादी हो जाते हैं और दुनिया से आशा लगाते हैं कि उसका ²ष्टिकोण सामान्य हो। अपने अंदर ठहरकर देखना और उसका अध्ययन करना बहुत आवश्यक है। अंदर बहुत शोर है, मेला सा लगा रहता है। सब बातों और शोरशराबों का निरीक्षण करें, तुरंत प्रतिक्रिया देने से बचें। अच्छे और बुरे का भेद पहचानें व निर्णय लें .. और जीत लें मानव को मानवता से। यही वास्तविक शिक्षा है। आत्म अवलोकन और आपकी बुद्धिमता से ही धैर्य और शान्ति की परीक्षा होती है। यह तपस्या का समय है और यही आपकी परीक्षा का भी समय है। समय की मांग है कि हम ईमानदारी से आत्मावलोकन करें।
फिर देर किस बात की है .. चलिए यात्रा आरंभ करें। अगर अपनी खोज आरम्भ कर दी जाए तो आप समय एवं क्षमता का उचित इस्तेमाल कर
पाएंगे। प्रत्येक व्यक्ति जीनियस है और उसमें अपार क्षमता है। उसके भीतर की सही क्षमता तब अंकुरित होती है जब आत्मजागरूकता की प्रक्रिया शुरू होती है। अपनी विशिष्टता को समझना और अपनी प्राकृतिक बहु बुद्धियों का एहसास होना बहुत जरूरी है। कई बार सफलता के भार को भी उठा पाना आसान नहीं होता। भीतर से आध्यात्मिक रूप से मजबूत व्यक्ति के लिए यह कपास का भारहीन बोरा है और अंदरुनी द्वंद्व में फंसे व्यक्ति को लगता है कि वह आसमान उठाकर चल रहा है।
भगवान बुद्ध ने कहा था कि किसी बात पर इसलिए विश्वास मत करो कि वह मेरे गुरु ने कहा था या ग्रन्थ ऐसा कहते हैं। हर शब्द को तर्कों के तराजू पर तोलो और अपनी बुद्धिमता और आत्मावलोकन के सहारे सही गलत का निर्णय लो।
'आपो दीपो भव:'। यानी, खुद अपने चिराग बनो। सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम तर्कों के स्थान पर भावनात्मक हो जाते हैं और भावनात्मक होने के स्थान पर तर्कवादी। अपनी और दूसरों की भावनाओं को पहचानने की क्षमता, अलग-अलग भावनाओं के बीच सामंजस्य और उन्हें उचित रूप से प्रकट करना जिस मनुष्य ने सीख लिया, वही श्रेष्ठ है। हर मनुष्य के अंतस में ही गंगा और गंगोत्री है तो फिर क्यों भटके और क्यों बौरायें हम?
-डॉ. सुधा शर्मा
¨प्रसिपल
वेदान्तिक इंटरनेशनल स्कूल
अमीनगर सराय (बागपत)