'कलियुगी' धरती पर 'कांवड़ पर्व' में 'मॉडर्न तपस्या'
प्रदीप द्विवेदी, बागपत : अत्याचार और व्यभिचार से दागदार होती इस 'कलियुगी' धरती का शायद यह पहला पर्व बनता जा रहा है। जिसमें श्रद्धा, भक्ति, रस घोलने वाला संगीत, सत्संग और आधुनिकता के संगम में 'अवघड़ दानी की तपस्या' ही नहीं, इन तपस्वियों की सेवा में पुण्य की लालसा और मानवता के भी दर्शन होते हैं। गिने चुने श्रद्धालुओं से शुरू हुआ यह कांवड़ पर्व अब लाखों-करोड़ों के तप और सेवा का महाकुंभ बन गया है। धर्म का मार्ग प्रशस्त कर रहे विशालतम भीड़ वाले इस पर्व को जानने, समझने और गंभीर प्रशासनिक व्यवस्था की जरूरत होती है।
श्रावण माह की शिवरात्रि से एक सप्ताह पूर्व कांवड़ यात्रा शुरू होती है। दरअसल, कांवड़ यात्रा सिर्फ कांवड़ियों की यात्रा भर नहीं है। जितनी संख्या में कांवड़िये हरिद्वार से गंगा जल लाते हैं, उससे अधिक संख्या में उनकी सेवा में लोग लगे होते हैं। यह सेवा कांवड़ियों को भोले मानकर होती है, इसलिए भोले की सेवा में पुण्य की लालसा शामिल होती है। भोले को कोई कष्ट न हो, इसलिए उनकी हर तरह की सेवा की जाती है। घायल पैरों के तलवे के भरोसे पथरीले मार्गो से पैदल आते कांवड़ियों की सेवा के लिए चिकित्सा उपचार का भी खासा इंतजाम होता है। शिविर में सिर्फ जलपान -खानपान ही नहीं भक्ति संगीतों व सत्संग का संगम होता है। इस दौरान कांवड़ियों की सेवा सिर्फ पुण्य ही नहीं मानवता की दृष्टि से भी की जाती है।
राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उप्र के कांवड़िये हरिद्वार से गंगा लेकर आते हैं। जिस दिल्ली-यमुनोत्री मार्ग से वह पैदल जर्जर मार्गो पर आते हैं वह इस जमाने में किसी तपस्या से कम नहीं है। कांवड़ियों के पैर छालों से भर जाते हैं, कांवड़ के भार से कंधे थक जाते हैं फिर भी बम भोले की न आवाज कम होती है और न कदम रुकते हैं।
वहीं दूसरी तरफ कांवड़ियों की आधुनिक केसरिया वेशभूषा, हजारों से लेकर लाखों में बनी आकर्षक कांवड़, गीत-संगीत पर थिरकते हुए गुजरना, कांवड़ियों में बच्चे, बड़े-बूढ़े, युवा व उम्र दराज महिलाओं का शामिल होना अलग ही जिज्ञासा पैदा करता है। कांवड़िये मोबाइल, लैपटॉप जैसे आधुनिक उपकरण का भी भरपूर उपयोग कर रहे हैं।