हर चीज का जकात है, जिस्म का जकात रोजा
अंबेडकरनगर : हुजूर सल्लललाहो अलैहि वालेही वसल्लम ने इरशाद फरमाया- हर चीज का जकात है और जिस्म का जकात रोजा है। इस्लामिक पुस्तक इब्ने माजा के हवाले से उक्त टिप्पणी मोहल्ला गदायां स्थित मस्जिद के पेश इमाम मौलाना कासिद हुसैन ने की। उन्होंने यह भी कहा कि रोजा मात्र चंद घंटों के लिए खानपान से मुक्त होने का नाम नहीं है, बल्कि यह समाज के उन बदनसीब लोगों का दर्द समझने का अवसर है।
धार्मिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को परीक्षा की घड़ी से गुजरना पड़ता है। इसके अनेक रूप हो सकते है। अल्लाह अपने बंदों में से किसी को कभी अत्याधिक धनाढ्य बनाकर इम्तेहान लेता है तो कभी किसी को मुफलिसी में डालकर आजमाता है। फतेहयाबी (सफलता) उसी के हिस्से आती है, जो दोनों ही परिस्थितियों में अपने कर्तव्य का निर्वहन ईमानदारी व जिम्मेदारी से करता है। रोजा अमीरी-गरीबी की खाई को पाटने का एक अच्छा माध्यम है। प्रत्येक मुसलमान नियमानुसार फितरा, खुम्स व जकात अदा करें तो न सिर्फ मुसलमानों में व्याप्त बदहाली तथा भुखमरी मिट सकती है बल्कि अन्य वर्ग के लोग भी इससे लाभांवित हो सकते है। मजहब गरीबों, यतीमों, बेवाओं और असहाय लोगों की अपने सामर्थ्य के हिसाब से सहायता करने का निर्देश देता है। इसमें लिंग भेद की कोई कैद नहीं है। पड़ोस या आसपास कोई शख्स भूखा सो जाए तो यह महापाप है। इस्लाम बहुत ही लचीला धर्म है, इसमें कट्टरता की जरा भी गुंजाइश नहीं है। यह मानव जाति के साथ ही जीव जंतुओं पर भी दया, परोपकार की सीख देता है। अल्लाह रसूल व कुरान के बताये रास्ते पर चलकर जिंदगी को खुशनुमा बनाया जा सकता है। इस्लाम में बखालत (कंजूसी) तथा बेजाखर्ची वर्जित है, क्योंकि यह परवरदिगाह को नापसंद है। खुशकलामी सिरात-ए-मुस्तकीम की तरफ ले जाती है और सबसे अच्छा अमल जबान की हिफाजत है। कारण यह कि व्यक्ति की पहचान और उसके स्तर का ज्ञान जबान खुलने के बाद ही होती है। वस्तुत: उक्त समस्त बातें सिर्फ रमजान माह के लिए ही नहीं, साल के बारह महीनों के लिए है। रमजान चूंकि अल्लाह का महीना कहा गया। इसलिए इसमें मख्सूस (विशेष) हिदायत दी गई है।