नोबल पुरस्कार में नामित दुईजी अम्मा बोली, बाबू जी...पुरस्कारों से तो पेट नहीं भरता न
2005 में शांति के नोबल पुरस्कार के लिए नामित होने वाली दुईजी अम्मा इन दिनों दो जून रोटी के लिए मशक्कत कर रही हैं। सरकार की तरफ से मिली जमीन पर भी दबंगों ने कब्जा कर लिया है।
इलाहाबाद [संजय कुशवाहा] । बाबू जी, पुरस्कारों से पेट थोड़े ही भरता है। का करें इसका। दुईजी अम्मा की आवाज यह कहते हुए भर्रा जाती है। जी हां शंकरगढ़ की वही 72 वर्षीय दुईजी अम्मा, जिनकी आवाज कभी माफिया और अफसरों को भयभीत कर देती थी, अब वह मुफलिसी की ऐसी मार से दो चार हैं कि इलाज तक नहीं करा पा रही हैं। उनकी अंधेरी कोठरी में तमाम पुरस्कार व्यवस्था को मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं। वर्ष 2005 में शांति के नोबल पुरस्कार के लिए नामित होने वाली दुईजी अम्मा इन दिनों दो जून रोटी के लिए मशक्कत कर रही हैं। महिला सामाख्या की तरफ से उनका नाम प्रस्तावित किया गया था। उन्हें सरकार की तरफ से जमीन का पट्टा हुआ था, जिस पर दबंगों ने कब्जा कर लिया है।
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बांदा जिले के गाहुर-रैपुरा में आदिवासी परिवार में पैदा हुईं दुईजी की शादी 16 बरस की आयु में वहीं मनिका गांव में बाबूलाल के साथ हुई थी। पिता जमुना प्रसाद दूसरों के यहां हरवाही करते थे। दुईजी ससुराल पहुंचीं तो वहां भी वही स्थिति। पति दूसरे के यहां मजदूरी करते थे। दशक पहले वह रोजी रोटी की तलाश में इलाहाबाद में शंकरगढ़ के जूही कोठी गांव आ गईं। यहां जो दिखा, उसने उन्हें व्यथित कर दिया। ठेकेदार चंद रुपये उधार देकर अनपढ़ व बेसहारा महिलाओं से सादे कागज पर अंगूठा लगवा लेते हैं। बाद में उनका शोषण करते हैं। उन्होंने आदिवासी महिलाओं पर होने वाले उत्पीडऩ के खिलाफ अभियान छेड़ दिया।
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देखते ही देखते उनकी ख्याति कई गांवों में फैल गई। पीडि़त महिलाएं न्याय के लिए उनकी चौखट पर आने लगीं। महिला समाख्या ने उन्हें अपने साथ जोड़ लिया। इस संगठन की मदद से दुइजी ने गांव में तीन परिषदीय विद्यालय खुलवाए, उनके प्रयासों से मजदूरी 20 रुपये की जगह दो सौ रुपये हो गई। उनके आंदोलनों से विंध्य क्षेत्र की पहाडिय़ों में हो रहे अवैध खनन पर न केवल रोक लगी बल्कि सैकड़ों परिवारों को शोषण से मुक्ति भी मिली। वर्ष 1995 में पति बाबूलाल के निधन के बावजूद उनकी समाज सेवा जारी रही।
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बहरहाल, दुईजी अम्मा के प्रयास से दर्जनों गांव के सैकड़ों परिवार खुशहाल हैं, लेकिन दुईजी की बदहाली जारी है। इंदिरा आवास की अंधेरी कोठरी में वह दर्द भरा जीवन गुजार रही हैं। गठिया और मधुमेह से उनका चलना फिरना मुश्किल हो गया है। सरकार से तीन सौ रुपये पेंशन मिलती है। स्वयं सहायता समूह की मदद से बकरियां पालकर किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ कर रही हैं।