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श्याम और शमीम के जज्बे को सलाम

अजहर अंसारी, इलाहाबाद : .. मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं, जिनके सपनों में जान होती है। पंखों से कुछ नह

By Edited By: Published: Sat, 03 Dec 2016 01:01 AM (IST)Updated: Sat, 03 Dec 2016 01:01 AM (IST)
श्याम और शमीम के जज्बे को सलाम

अजहर अंसारी, इलाहाबाद : .. मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं, जिनके सपनों में जान होती है। पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है। किसी शायर की यह पंक्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नेत्रहीन छात्र शमीम अहमद और अस्थि दिव्यांग छात्र श्याम शंकर पर सटीक बैठती है। धर्म की दीवारों से इतर इन दोनों ने दोस्ती की नई मिसाल पेश की है। दोनों की दोस्ती का रंग इतना गाढ़ा है कि एक का सहारा लेकर दूसरा शिक्षा की मुख्यधारा से जुड़ा रहा। नतीजा यह है कि शमीम ने मध्यकालीन इतिहास विषय के साथ पीएचडी में दाखिला लिया। वहीं श्याम राजनीतिशास्त्र के साथ शोध करने की तैयारी कर रहे हैं।

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शमीम अहमद के साथ कुदरत ने भले ही इंसाफ न किया हो लेकिन उन्होंने अपने जज्बे के साथ ही जिंदगी जीकर मिसाल पेश की। आंखों से कुछ न दिखने के बावजूद उच्च शिक्षा में उच्चतम स्तर पहुंचे। शिक्षा प्राप्त करने का जुनून इनको इलाहाबाद विवि कैंपस में खींच लाया। स्नातक और पीजी करने के बाद इन्होंने लखनऊ स्थित डा. शकुंतला देवी मिश्रा राष्ट्रीय पुर्नवास विश्वविद्यालय में पीएचडी में दाखिला लिया। खास बात यह है कि इनको मंजिल तक पहुंचाने में इनके दिव्यांग मित्र श्यामशंकर का बहुमूल्य योगदान है। शमीम कहते हैं कि ईश्वर जब आंखे ही न दे तो दुनिया वीरान सी हो जाती है। स्कूल के बाद कालेज और विश्वविद्यालय में विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है लेकिन मैने अपने मित्र श्याम शंकर के साथ शैक्षिक सफर जारी रखा। स्नातक, परास्नातक और शोध में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। मुझे दिखाई नहीं देता और श्याम चल नहीं सकते। दोनो एक दूसरे का सहारा बन तालीम के शिखर पर पहुंचना चाहते है। इनका कहना है कि सपने अधिकतर लोग खुली आंखों से देखते हैं। लेकिन ईश्वर ने मुझे तो आंखे ही नहीं दी। मैं किससे शिकायत करने जाऊं। लेकिन मैंने अपनी बंद आंखों से सपना देखा। पीएचडी करने के बाद मैं सहायक आचार्य बनना चाहता हूं। उच्च शिक्षण संस्थान में मुझे प्रवेश के लिए विशेष शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेना पड़ा। नसीम के पिता हशमत उल्ला कटरा में जगराम चौराहे के पास चूड़ी की दुकान चलाते हैं। बेटे की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने शमीम को पढ़ने से रोका नहीं। शमीम कहते हैं कि मध्यकालीन इतिहास के वरिष्ठ आचार्य प्रो. योगश्वर तिवारी ने मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचाने में मदद की। इलाहाबाद में मुझे दाखिला नहीं मिला तो शकुंतला देवी मिश्रा विवि में दाखिला लेने की सलाह दी। प्रो. योगेश्वर कहते हैं कि इन दोनों की दोस्ती और जीवन के सफर में किसी फिल्म की ये लाइनें बिल्कुल सटीक बैठती हैं 'रंग और नस्ल, जात और मजहब सब आदमी से कमतर है, यह हकीकत तुम भी मेरी तरह जान जाओ तो कोई बात बनें'।


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