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अब बाबू जी,..पुरस्कारों से तो पेट नहीं भरता

संजय कुशवाहा, इलाहाबाद : बाबू जी, पुरस्कारों से पेट थोड़े ही भरता है। का करें इसका। दुईजी अम्मा की आव

By Edited By: Published: Thu, 29 Sep 2016 01:00 AM (IST)Updated: Thu, 29 Sep 2016 01:00 AM (IST)
अब बाबू जी,..पुरस्कारों से तो पेट नहीं भरता

संजय कुशवाहा, इलाहाबाद : बाबू जी, पुरस्कारों से पेट थोड़े ही भरता है। का करें इसका। दुईजी अम्मा की आवाज यह कहते हुए भर्रा जाती है। जी हां, शंकरगढ़ की वही दुईजी अम्मा, जिनकी आवाज कभी माफिया और अफसरों को भयभीत कर देती थी। अब वह मुफलिसी की ऐसी मार से दो चार हैं कि इलाज तक नहीं करा पा रही हैं। उनकी अंधेरी कोठरी में तमाम पुरस्कार व्यवस्था को मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं।

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वर्ष 2005 में नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित होने वाली दुईजी अम्मा इन दिनों दो जून रोटी के लिए मशक्कत कर रही हैं। उन्हें पट्टा हुआ था सरकार की तरफ से जमीन का। उस पर दबंगों ने कब्जा कर लिया है। अब जमीन के लिए उनकी आवाज आला अफसरों तक नहीं पहुंच पा रही है। बांदा जिले के गाहुर-रैपुरा में जन्मी दुईजी की शादी 16 बरस की आयु में मनिका गांव में बाबूलाल के साथ हुई थी। गौना तीन बरस बाद हुआ। पिता जमुना प्रसाद दूसरे के यहां हरवाही करते थे। दुईजी ससुराल पहुंचीं तो वहां भी वही स्थिति। पति दूसरे के यहां मजदूरी करते थे। दुईजी पति के काम में हाथ बंटाने लगीं। फिर रोजी रोटी की तलाश में इलाहाबाद में शंकरगढ़ के जूही कोठी गाव आ गई। यहां जो दिखा, उसने उन्हें व्यथित कर दिया। दुईजी ने देखा- ठेकेदार चंद रुपये उधार देकर अनपढ़ और बेसहारा महिलाओं से सादे कागज पर अंगूठा लगवा लेते हैं। बाद में उनका शारीरिक और मानसिक शोषण करते हैं। इस हालात ने दुईजी को झकझोर कर रख दिया। यहीं से उन्होंने पकड़ ली राह संघर्ष की। आदिवासी महिलाओं पर होने वाले उत्पीड़न के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। देखते ही देखते उनकी ख्याति आसपास के 145 गावों में फैल गई। कर्ज के बोझ तले दबी महिलाएं न्याय के लिए उनकी चौखट पर आने लगीं। घरेलू ¨हसा की शिकार महिलाएं भी इनमें थीं। दुईजी अब जुल्म की शिकार महिलाओं की आवाज बन चुकी थीं। इंसाफ दिलाने के लिए एक शहर से दूसरे शहर तक का सफर तय करने लगीं। नाम पड़ गया दुईजी अम्मा। इस अनपढ़ महिला का लोहा आइएएस और पीसीएस ऑफिसर मानने लगे। महिला सामाख्या ने उन्हें अपने साथ जोड़ लिया। इस संगठन की मदद से दुइजी ने गाव में तीन परिषदीय विद्यालय खुलवाए, उनके प्रयासों से मजदूरी 20 रुपये की जगह दो सौ रुपये हो गई। इलाहाबाद ही नहीं बल्कि अन्य प्रांतों में भी उन्हें सम्मानित किया जाने लगा। उनके आंदोलनों से विंध्य क्षेत्र की पहाड़ियों में हो रहे अवैध खनन पर न केवल रोक लगी बल्कि सैकड़ों परिवारों को शोषण से मुक्ति भी मिली। 1995 में उनके पति बाबूलाल की बीमारी से निधन हो गया। इसके बावजूद उनकी समाज सेवा जारी रही।

दुईजी अम्मा के प्रयास से आज शकरगढ़, ओसा, गन्ने, जूही कोठी, सोनवरसा, सीध टिकट, पंडित का पुरवा, कोहड़िया आदि दर्जनों गांव के सैकड़ों परिवार खुशहाल हैं, लेकिन दुईजी की बदहाली जारी है। इंदिरा आवास की अंधेरी कोठरी में वह दर्द भरा जीवन गुजार रही हैं। गठिया और मधुमेह की बीमारी से उनका चलना फिरना मुश्किल हो गया है। सरकार से तीन सौ रुपये पेंशन मिलती है। इसके अलावा स्वयं सहायता समूह की मदद से बकरियां पालकर किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ कर रही हैं।

पुरस्कारों पर नजर

1994-महिला सामाख्या द्वारा सम्मान

2005-नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित

2006-अवध सम्मान

2009-साझी दुनिया से अभिनंदन पत्र

2010-लखनऊ में जी न्यूज का सम्मान

2016-अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर डीएम ने दिया स्मृति चिन्ह

-उत्तराखंड सरकार के साथ ही तमाम संगठनों द्वारा भी दुईजी अम्मा सम्मानित की जा चुकी हैं।


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