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छठ पैकेज..'भोरही में नदिया नहाईला, आदित्य मनाईला हो..'

जासं, इलाहाबाद : 'बचपन में दउरा उठाकर घाट जाने की ललक ऐसी थी कि मानो भगवान से मिलने जा रहा हूं। माई

By Edited By: Published: Wed, 29 Oct 2014 08:19 PM (IST)Updated: Wed, 29 Oct 2014 08:19 PM (IST)
छठ पैकेज..'भोरही में नदिया नहाईला, आदित्य मनाईला हो..'

जासं, इलाहाबाद : 'बचपन में दउरा उठाकर घाट जाने की ललक ऐसी थी कि मानो भगवान से मिलने जा रहा हूं। माई (मां) के साथ-साथ घर-परिवार के लोग भी पीछे नहीं रहते थे। गजब का उत्साह, अजब सी जिज्ञासा। बहते नदी में दीयों को देखने की। कमर भर पानी में माइयों को कतारबद्ध होकर सूर्यदेव को अ‌र्घ्य करते हुए देखने की। और सबसे अहम हैं.. छठ मइया के गीत। ऐसे गीत जो कभी रुलाते हैं तो कभी हंसाते। कभी गंवई बनाते है तो कभी पारंपरिक।' यह उद्गार पटना के (बिहार प्रांत) निवासी और यहां पर बैंक अधिकारी संजीव आनंद के हैं। बुधवार को शाम साढ़े पांच बजे वे अपनी पत्‍‌नी को कोसी भराने अरैल स्थित गंगा घाट पर आए थे। ऐसे ही तमाम आस्थावानों से संगम, अरैल, बलुआघाट, बरगद व रसूलाबाद घाट पटा पड़ा था।

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छठ मइया के लोकगीतों की मधुर चासनी में डूबे लोग केवल और केवल खोए थे पुरानी गंवई यादों में। बलुआघाट पर ग्राम वधु गा रही थी - 'कोपी-कोपी बोलेली छठीय माता, सुनी ए सेवक लोग.हमरी घाटे दुबिया उपजी गइले, मकरी बसेरा लेली।' 'कोपी-कोपी' यानी नाराज होकर छठी माता शिकायत कर रही हैं। घाटों पर लंबी घास उगी है। मकड़ी के जाले लग रहे हैं। धान की रोपनी और बारिश की परेशानी झेलने वाला ग्राम्य जीवन दिवाली में अंगड़ाई लेता है लेकिन दिवाली में सफाई तो सिर्फ अपने 'आंगन-दुआर' की होती है। नदी का किनारा गंदा है। पोखर का किनारा गंदा है। वहा सफाई जरूरी है। सामुदायिक स्वच्छता के लिए प्रेरित करते हुए इस छठ गीत से लोकपर्व का विधान शुरू होता है। सेवक की तंद्रा टूटती है और वह छठी मईया को आश्वस्त करता है - 'हाथ जोड़ी बोलेले सेवक लोग, सुनी ए छठीय माता, रउरा घाटे दुबिया छिलाई देबो, मकरी उजारी देबो.।' फिर चंदन छिड़कने और घी के हुमाद का वादा भी होता है। माता प्रसन्न होती हैं। सेवक तैयारियों में जुट जाते हैं। छठ मईया की पूजा होगी। संकल्प के बाद चिंता होती है पूजा होगी कैसे? 'कहा पइबो सोने के कटोरवा, कहा रे पइबो दूध। कहा पइबो फूल के मालवा, कहा रे पइबो पान.।' इस चिंता से गाव दूर करता है। वही गाव, जो है तो गाव लेकिन परिवार से कम नहीं। 'सोनारा के घरे सोना के कटोरवा, ग्वाला घरे दूध, मलहोरिया के घरे फूल मालावा, पनेरिया घरे पान.।' यही छठ की खासियत है। यह एक गाव को एक परिवार में बदल देता है। कोई छोटा नहीं। कोई बड़ा नहीं। सभी अपने। सब एक-दूसरे के साथ होते हैं। एक-दूसरे के बिना पूजा हो ही नहीं सकती। सोने का कटोरा, दूध, पान और फूल माला मिल जाती है। बाकी वस्तुएं भी आ ही जाएंगी। 'छोटी-मुटी डोमिन बिटिया के लामी लामी केस, कलसूपवा लेले अइहें हो बिटिया, अरघिया के बेर।' अ‌र्घ्य के समय डोमिन की लंबे-लंबे केश वाली बिटिया कलसूप लेकर आएगी। उसके बिना पूजा कैसे पूरी होगी? छठ मईया के आशीर्वाद से 'तिवई' (व्रती) तमाम तैयारियों में जुट जाती हैं। एक 'तिवई' का दुख अलग है। पुत्र की कामना में वह छठ की पूजा कर रही होती है - 'भोरही में नदिया नहाइला, आदित्य मनाइला हो, बाबा अंगने में मागीला अंजोर, मथवा नवाइना हो.। ताना देके कहेली गोतिनिया, इ तिवई बाड़िनियां नू हो, बाबा गोतिनी के ताना न सहाला, सब गुन गाइला हो.।' सुबह स्नान कर आगन में पूजा की तैयारी कर रही महिला को उसकी जेठानी बाझ होने का ताना देती है। दुखी होकर वह भगवान आदित्य से कहती है कि अब यह ताना सहा नहीं जा रहा। उसके दुख से भगवान भी दुखी होते हैं। फिर आश्वस्त करते हैं कि 'चुप रह, धीर धर तिवई, तू बाझ नाही रहबू नु हो। बस आज से नौ रे महिनवा होरिल मुस्कइहें नु हो.।'


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