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हर दसवीं जिंदगी पर 'मौत का साया'

जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : हर दस में से एक व्यक्ति टीबी का मरीज। कोई इलाज करा रहा तो कोई बेमौत ऋमर

By Edited By: Published: Thu, 23 Oct 2014 05:54 PM (IST)Updated: Thu, 23 Oct 2014 05:54 PM (IST)
हर दसवीं जिंदगी पर 'मौत का साया'

जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : हर दस में से एक व्यक्ति टीबी का मरीज। कोई इलाज करा रहा तो कोई बेमौत ऋमर रहा। पत्थर मजदूरों के साथ तो इस बीमारी का चोली दामन का साथ हो गया है। आदिवासी मजदूरों की शायद ही कोई बस्ती ऐसी हो, जहां इस बीमारी की दस्तक न हुई हो।

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पिछले दिनों जब कोरांव में रहस्यमय बीमारी ने आठ बच्चों की जान ली तो जिला प्रशासन हरकत में आया। लखनऊ तक से टीम गांव पहुंच गई। आनन-फानन में मरीजों का इलाज शुरू करा दिया गया। कोरांव में टीबी को लेकर भी हालात कुछ ऐसे ही हैं। बीमारी ने नासूर का रूप ले लिया है। हर साल दर्जनों मौतें होती हैं, जिस पर रोक लगाने की सारी कवायद बेकार साबित हुई हैं। दिल्ली की कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस ऑफ इंडिया नामक संस्था ने सरकारी योजना अक्षय के तहत इस दिशा में कार्य किया। इसके लिए उसने यमुनापार के उन गांवों को चुना जहां मजदूर निवास करते हैं। कोरांव के अतरेजी, मोजरा, पंवारी, बड़नपुर, मजगवां, अमिलिया पाल व मांडा के नेवड़िया 42 सहित दर्जनों गांवों में संस्था ने पूरे एक साल तक अध्ययन किया। इस दौरान करीब तीन हजार घरों में सर्वे किया गया। उन लोगों को चिह्नित किया गया जिन्हें खांसी आने की शिकायत थी। संस्थान ने ऐसे लोगों का स्टूल टेस्ट कराया तो नतीजे चौंकाने वाले सामने आए। पाया गया कि हर दसवां व्यक्ति टीबी की चपेट में है। यानी तीन हजार घरों में तीन सौ से ज्यादा टीबी के मरीज। खास बात यह रही कि इनमें से अधिकतर संख्या महिलाओं की थी। कोरांव, लेड़ियारी और बड़ोखर स्थित डाट्स सेंटरों पर मरीजों का इलाज कराया गया। वैसे संस्था द्वारा क्षेत्र के अतरेजी व नेवड़िया में भी टीबी की जांच की जा रही है।

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बीमारी बढ़ने का कारण

-मजदूर पढ़े लिखे नहीं हैं। लिहाजा बीमारी के प्राथमिक लक्षण को समझ नहीं पाते। जब तक समझ पाते हैं, बीमारी असर दिखा चुकी होती है।

-बीमारी को लेकर लोगों में एक तरह का सामाजिक डर भी बैठा हुआ है। बीमारी का पता चलने के बाद ऐसे परिवारों में कोई शादी नहीं करता। यही कारण है पानी सिर के ऊपर चला जाता है।

-कुपोषण भी इस बीमारी का एक बड़ा कारण है। कमजोर शरीर जब पत्थर तोड़ते हैं तो उसके कण शरीर में प्रवेश कर फेफड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं। टीबी जैसी बीमारी से ग्रसित होने के बाद लोगों का शरीर कमजोर होता जाता है।

-सही ढंग से इलाज न होना भी बीमारी बढ़ने का प्रमुख कारण है। मजदूरों की बस्तियों तक स्वास्थ्य टीम पहुंच नहीं पाती लिहाजा यह बीमारी एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे व्यक्ति तक पहुंचती रहती है।

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सिल-बट्टे में घुट रहा दम

इलाहाबाद : रोजी ही लोगों की जान की दुश्मन बन गई है। शंकरगढ़ के कुच बंधियान गांव में वर्षो से ऐसा होता आ रहा है। महिलाएं विधवा हो रही हैं और पुरुष विदुर। दोष किस पर मढ़ें। पत्थर रोजी है, पर मौत की वजह भी। करें भी तो क्या? प्रशासनिक अमला चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा है।

गांव में कई पीढ़ी से सिल बट्टे का कारोबार होता आ रहा है। गांव में घुसते ही पत्थरों को कूटने की आवाज ध्यान भंग करती है। पूरा गांव इस धंधे में शरीक है। हर साल मौतें होती हैं, पर बाद में सबकुछ सामान्य हो जाता है। समस्याओं से जूझ रहे लोगों को पीने के लिए पानी तक की मगजमारी करनी पड़ती है। गांव के सत्तर फीसदी लोग टीबी से ग्रसित हैं। कुछ ऐसा ही हाल शिवराजपुर स्थित क्वारी नंबर पांच का भी है। पत्थर ने यहां भी महिलाओं को विधवा बनाया है।

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'टीबी को लेकर व्यापक रूप से प्रचार प्रसार किया जा रहा है। मरीजों को हर स्तर की सहूलियत दी जा रही है। बलगम की जांच के बाद अगर कोई मरीज टीबी से ग्रसित पाया जाता है तो व्यवस्था यह है कि स्वास्थ्य कर्मी उसे घर तक दवा खिलाने जाता है। अगर पाठा क्षेत्र में इस तरह की बात है तो विभाग जल्द ही टीबी को लेकर अभियान चलाया जाएगा।'

-डा. पदमाकर सिंह, सीएमओ इलाहाबाद।


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