दिवाली पैकेज..'इनके' घर जले समरसता के दीप
धर्मेश अवस्थी, इलाहाबाद : जीवन की दियाली में आस्था का तेल, प्रेम की बाती, खुशियों की ज्योति और सु
धर्मेश अवस्थी, इलाहाबाद :
जीवन की दियाली में आस्था का तेल, प्रेम की बाती, खुशियों की ज्योति और सुख का प्रकाश होने की सभी कामना करते हैं लेकिन हकीकत में उसे अमल में लाने का वैसा जतन नहीं करते जैसा उन्हें करना चाहिए। अबकी दीपावली के मौके पर 'दैनिक जागरण' ने उन शख्सियतों के अंतर्मन को छूने का प्रयास किया, जिन्होंने इस पर्व को मनाया ही नहीं, बल्कि उसके उद्देश्य को तरीके से जिया है।
---------
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एनआर फारुकी कहते हैं कि रहने वाले तो आजमगढ़ जनपद के हैं, लेकिन जब से सुध संभाली है खुद को इलाहाबाद में ही पाया ऐसे में वह अपने को इलाहाबादी मानते हैं। साल 1967-68 की दिवाली उन्हें आज भी याद है जब अपने वालिद के मकान में राजापुर रहते थे। पड़ोसियों के घरों में जगमगाते दीपक देखकर वह भी अपने परिवार के साथ घर को दीपों से सजाते थे। रात में घर पर मिठाई आती तो उसे जी भरकर खाते थे। चीनी के खिलौने बचपन में खूब खाया है। अब वे शहर के अशोक नगर मुहल्ले में रह रहे हैं। वहां पास-पड़ोस के लोगों के साथ दीपावली मनाते हैं। इस बार पड़ोसी एसके श्रीवास्तव का निधन होने के कारण शोक में हम लोग रोशनी आदि भी नहीं करेंगे। बोले कि पहले आपसी वैमनस्य बिल्कुल भी नहीं था।
----------
सैंकड़ों दीये आंखों में जल उठे
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. किश्वर जुबीन नसरीन शहर के दिलकुशा पार्क नया कटरा में रहती हैं। दीपावली की बात छिड़ते ही वह अतीत में खो जाती हैं। करीब दस बरस पहले पड़ोस में रहने वाले माथुर परिवार में चार बेटियां एवं एक बेटा था। दिवाली के दिन माथुर दंपती पूजा-पाठ में व्यस्त थे और उनकी 15 साल की बड़ी बेटी घर के अंदर दीपक जला रही थी, बाकी बेटियां दौड़-दौड़ करके उन्हें बाहर रख रही थी। इसी बीच बड़ी बेटी की फ्राक में आग लग गई। सारी बहनें बिलख रहीं थी लेकिन पटाखों के शोर में उनकी आवाज दब जा रही थी। पड़ोस में रहने के कारण हमने उनकी आवाज सुनी। सारा काम छोड़कर भाई के साथ उसे बचाने को दौड़ पड़ी, आग को बुझाया और उसे अस्पताल ले गए। इसमें मेरे भाई के हाथ भी झुलस गए। बेटी की जान बचने की जानकारी पर सैंकड़ों दीये हमारी आंखों में जल उठे। दूसरों को खुशी देने में हमें जो खुशी मिली उसे बयां नहीं कर सकते। कहा कि दिवाली पर पटाखों से दूर ही रहना चाहिए यह खुशी का माध्यम नहीं है, बल्कि दूसरों को खुश करना ही असली जीवन है।
------------
खुशियों को दोगुना करते हैं हम
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. मुश्ताक अली कहते हैं कि उन्हें अतीत में जाने की जरूरत नहीं है, बल्कि वर्तमान में ही जीते हैं इसलिए हर बार दीपावली के रोज औरों की खुशियों को दोगुना करते हैं। बोले, वह दीपावली के दिन अपने मित्र अनिल अग्रवाल के घर जाते हैं उन्हें गले लगाकर बधाई देते हैं और वहीं पर बैठकर पटाखे छूटते देखते हैं और दोस्त के घर पर ही भोजन व मिठाई आदि खाकर वापस लौटते हैं। इसमें मेरा पूरा परिवार भी शामिल रहता है। अली ने कहा कि सिर्फ अनिल ही नहीं अनुपम आनंद, शिवशंकर सिंह आदि के घर पर भी परिवार सहित जाते हैं। कहा कि दीपावली खुशियों का त्योहार है इसलिए खुशी मनाते हैं। इसमें धर्म, वर्ग आदि के बंधन का क्या काम।