Holi Special: होलिका की लौ बताती है भविष्यफल, जानें क्या है वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व
दिशा के अनुसार होली की लौ का फलाफल शकुन शास्त्र में बताया गया है।
आगरा, तनु गुप्ता। अग्नि की प्रज्जवलता यूं तो स्वत: ही मन के अंधियारे को दूर कर देती है। गोबर के उपले और सूखी काष्ठ में उठती अग्नि की लपटें एक विशेष प्रकार ऊजार् शरीर में संचारित करती है। ये ऊर्जा कुछ और नहीं आत्मिक रोशनी की ऊर्जा होती है। बुधवार की शाम जब होलिका दहन होगा तो यही अहसास हरेक के मन में होता है। होलिका दहन सिर्फ बुराई पर अच्छाई का ही नहीं बल्कि अपने कर्मों को उन्नत करने की दिशा में आगे बढ़ने का भी होता है। धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी के अनुसार होलिका दहन आध्यात्म और विज्ञान से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि ‘होलिका’ शब्द का अर्थ है ‘भुना हुआ अन्न’।
होलिका के अवसर पर लोग अग्नि में अन्न डालते हैं और गेंहू और जौ कि बालों को भूनते हैं। योगियों की बोलचाल में ज्ञान अथवा योग को अग्नि से उपमा दी जाती है क्योंकि, जैसे भूना हुआ बीज आगे उत्पति नहीं कर सकता वैसे ही ज्ञान- युक्त और योग- युक्त अवस्था में किया गया कर्म भी अकर्म हो जाता है अर्थात वह इस लोक में विकारी मनुष्यों के संग में फल नहीं देता। अतः ‘होलिका’ शब्द भी हमें इस बात की स्मृति दिलाता है कि परमपिता ने पुरानी सृष्टि के अंत में मनुष्यों को ज्ञान-योग रूपी अग्नि द्वारा कर्म रूपी बीज़ को भूनने की जो सम्मति दी थी, हम उस पर आचरण करें।
धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी
होलिका की लौ का प्रभाव
पंडित वैभव बताते हैं कि शास्त्र में होलिका दहन के समय वायु प्रवाह की दिशा से जन जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का फलित निर्णय किया जाता है। आगामी वर्ष कैसा रहेगा, इसका निष्कर्ष भी निकाला जाता है। दिशा के अनुसार होली की लौ का फलाफल शकुन शास्त्र में कई प्रकार से बताया गया है। होली की लौ ऊंचे आकाश को जाए तथा वायु शांत हो तो उत्पाद सूचक है। यदि इस दिन मेघ गर्जना, वर्षा, आंधी और तेज वायु वेग हो, तो आने वाले साल में धन- धान्य, गल्ला, कार्य व्यवसाय और व्यापार में लाभ होता है।
पूर्व दिशा- सुखद
आग्नेय- आगजनी कारक
दक्षिण दिशा- दुर्भिक्ष एवं पशु पीड़ाकारक
नैऋत्य- फसल हानि
पश्चिम- सामान्यतया तेजीप्रद
वायव्य- चक्रवात, पवनवेग
उत्तर व ईषान- अच्छी वर्षा की सूचक।
चारों दिशाओं में घूमने पर- संकट की परिचायक।
होली का आध्यात्मिक रहस्य
होली का त्योहार शिवरात्रि के बाद, फाल्गुन पूर्णिमा के दिन आता है और लोग प्रायः चार प्रकार से मनाते हैं,
- एक दूसरे पर रंग डालते हैं,
- अंतिम दिन होलिका जलाते हैं,
- मंगल मिलन मनाते हैं
- कई लोग झूले में श्रीकृष्ण (श्री नारायण) की झांकी भी सजाते हैं
होली को मनाने की तिथि और उपर्युक्त चार रीतियों पर ध्यान देने से होली के वास्तविक रहस्यों को सहज ही समझा जा सकता है। पंडित वैभव जोशी बताते हैं कि भारत में, देशी वर्ष फाल्गुन की पूर्णमासी को समाप्त होता है। इसलिए, फाल्गुन की पूर्णमासी की रात्रि को होलिका जलाने का अर्थ पिछले वर्ष की कटु और तीखी स्मृतियों को जलाना और अपने दुखों को जलाना, अपने दुखों को भूलना और हंसते- खेलते नए वर्ष का आह्वान करना है। उत्तर प्रदेश में कई लोग ‘होलिका दहन’ को ‘संवत जलाना’ भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त, पुराने वर्ष के अंत में इस त्योहार को मनाया जाना वृहद दृष्टि में इस रहस्य का भी परिचय देता है कि यह त्योहार पहले-पहले कल्प अथवा कलियुग के अंत में मनाया गया था जिसके बाद सतयुग के अंत में होलिका जलाने से मनुष्य का दुख, दरिद्रता और वासना तथा व्यथा सब दूर हो गए थे।
होली पर रंग का क्या है महत्व
होली पर रंग लगाने की प्रथा के आध्यात्मिक पहलू के बारे में पंडित वैभव बताते हैं कि एक- दूसरे पर रंग डालने तथा छोटे-बड़े, परिचित- अपरिचित सभी से प्रेमभाव से मिलने की जो रीति है, इसका शुरू में यही रूप था कि परमपिता परमात्मा शिव से ज्ञान प्राप्त करके मनुष्यों ने ज्ञान-पिचकारी से एक दूसरे की आत्मा रूपी चोली को रंगा था और एक- दूसरे के प्रति मन-मुटाव तथा मलीन भाव त्यागकर मंगलकारी परमात्मा शिव से मंगल मिलन मनाया था। ज्ञान के बिना मनुष्य भला मंगल मिलन मना ही कैसे सकता है? अज्ञानी और मायावी मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि राक्षसी स्वभावों से दूसरों का अमंगल करता है।
झूले में श्रीकृष्ण जी की झांकी
पंडित वैभव जोशी कहते हैं आजकल होली के उत्सव पर वैष्णव लोग झूले में श्रीकृष्ण (श्री नारायण) की झांकी सजाकर उसके दर्शन मात्र को ही पर्याप्त समझते हैं। उनका यह विश्वास है कि ‘इस दिन जो व्यक्ति झूले में झूलते हुए श्रीकृष्ण जी के दर्शन करता है, वह बैकुंठ में देव-पद का भागी बनता है। वह वैकुंठ में भी श्रीकृष्ण जी का निकट्य प्राप्त करता है अथवा वहां भी उनके साथ-साथ झूलने का सौभाग्य प्राप्त होता है। वास्तव में ‘दर्शन’ का अर्थ ‘ज्ञान’ अथवा पहचान है। इसलिए श्रीकृष्ण जी के दर्शन का मतलब है ‘श्री कृष्ण जी की जीवन कहानी का वास्तविक ज्ञान।‘ जो मनुष्य स्वयं को ज्ञान के रंग में रंगता है और सच्चा वैष्णव (सम्पूर्ण अहिंसक) बनता है, उसे तो वैकुंठ में झूलते हुए श्रीकृष्ण के दर्शन होते ही हैं। उसकी आंख तो इस कलियुगी दुनिया से हट जाती है और बैकुंठ पर ही लगी रहती है। वह तो इस दुनिया में रहते हुए भी मानो नहीं रहता बल्कि बैकुंठ में श्रीकृष्ण को झूलता देखता है। इतना ही नहीं, वह तो स्वयं भी ज्ञान-आनन्द के झूले में झूलता है। जो एक बार उस झूले में झूलता है, उसे विषय-विकार फिर अपनी ओर आकर्षित नहीं करते। उसके लिए होली का उत्सव ‘मल युद्ध’ नहीं है, मंथन (ज्ञान–मंथन) उत्सव है।