पुरानी दिल्ली...ये शौक पुराने
वैसे तो सभी के लिए उनके शौक दिल के करीब होते हैं, लेकिन दिल्ली वालों के लिए उनके शौक उनकी जिंदगी है।
सदर बाजार की तंग गलियां। बेशक इंसानों के रहने के लिए जगह छोटी है। लेकिन यहां रहने वालों के दिल इतने बड़े हैं कि सब अपने शौक के लिए इन्हीं तंग गलियों में महफिल गुलजार कर लेते हैं। तीस-तीस गज के चार-चार मंजिला मकान। उनकी आखिरी मंजिल और वहां कुछ दड़बे या कहीं लगी कुछ छतरी और डिब्बे में रखे दाने के पास गुटर गू करते कबूतर। विजेन्द्र के लिए कबूतर पालना, उनकी देख रेख करने सिर्फ एक शौक ही नहीं बल्कि उनकी जिंदगी है। वह जहां भी जाते हैं वहां से कबूतर खरीद लाते हैं। इनकी देखरेख के बीच अपना व्यापार भी संभालते हैं। वे बताते हैं कि कबूतरों को देखकर तनाव छू मंतर हो जाता है। इन कबूतरों के फैले पंख और इनकी आवाज में एक गजब सा सुकून होता है। इनके लिए खासतौर पर घी की रोटी, बादाम, काजू और पिस्ता के दाने तैयार किए जाते हैं। रहने के लिए दड़बे और कुछ एंटीना की छतरी बना रखी हैं।
यहां तीन किस्म के कबूतर पाले जाते हैं। पहली कबूतर की प्रजाति काबूली और निसाबरा कहलाती है, जो बाज से ऊंची उड़ती है और एक बार उडऩे के बाद पांच-छह घंटे के बाद ही वापस लौटते है। इसके बैठने के लिए खासतौर
पर लकड़ी और बांस की छतरी बनाई जाती है। दूसरी प्रजाति लकी कबूतर की है। इसके पंख बेहद खूबसूरत होते हैं और ये मोर की तरह नाचते भी हैं। तीसरा गोला कबूतर प्रजाति कहलाती है जिसे खूब पसंद किया जाता है। गोला कबूतर अपने मालिक की आवाज पहचानते हैं उसकी आवाज पर उड़ता है और वापस लौट भी आता है। इसकी कई किस्म होती हैं जिसे लोग पालते हैं, इसमें पिल्का, लालबंद, कलपोटिया, हैदराबादी कबूतर शामिल है। इस काम में कई बार पूरा पूरा दिन बीत जाता है। पुरानी दिल्ली में कई लोगों के घरों में कबूतर है और कुछ लोग इन्हें उड़ाने का भी काम करते हैं।
बल्ब की रोशनी में कैरम की बाजी कूचा पंडित की सड़क, वकील वाली गली की तरफ जाती है। चौड़ी गली से होकर गुजरते हुए धीरे धीरे गली संकरी होती चली जाती है। मकान के छज्जे एक दूसरे से मिल जाते हैं इसलिए दिन में ही रोशनी कम हो जाती है। अंदर बैठे धूपछांव-शाम की कुछ खबर ही नहीं रहती। यहीं पर हैअबरार कैरम क्लब। यहां दिन-रात बल्ब की रोशनी में कैरम की गोटियों पर निशाने लगते हैं। बल्ब की रोशनी में जगमगाती कैरम टेबल में चार लोग 15 रुपये प्रति घंटा के हिसाब से खेलते हैं। पहले तो हर मोहल्ले में कैरम क्लब हुआ करते थे।
20 साल से कैरम क्लब चला रहे मोहम्मद अबरार बताते हैं कि वकील गली में ही कई लोगों के क्लब थे लेकिन अब वो बंद हो गए। नेशनल स्तर के कैरम खिलाड़ी सलमान बताते हैं कि कई जगहों पर कैरम खेला है और ट्राफी जीती हैं लेकिन दुख है कि उनका शौक उनका प्रोफेशन नहीं बन सका है। बाकी खेलों में जिस तरह से खिलाडिय़ों को नौकरी मिलती है वैसे कोई नौकरी नहीं दी गई। इन सबके बावजूद भी हर शाम कैरम खेलने आता हूं। मेरे नाना भी कैरम के शौकीन थे वे भी अपने जमाने में कैरम क्लब में जाया करते थे। इन्हीं कैरम क्लब से कई नेशनल स्तर के खिलाड़ी निकल कर गए हैं। यहां कई नामी गिरामी खिलाड़ी भी कैरम खेलने आते हैं। मोहम्मद अबरार बताते हैं कि शाम को दुकानें और बाजार बंद होने के बाद लोग यहां कैरम खेलने पहुंचते हैं। आठ टेबल हैं लेकिन फिर भी खेलने के लिए कई बार लोगों की लाइन लग जाती है। दिनभर में करीब 70 लोग कैरम खेलने आ जाते हैं। इस शौक का क्रेज थोड़ा कम जरूर हुआ है लेकिन चांदनी चौक, चावड़ी बाजार, जामा मस्जिद के पास कई क्लब आज भी चल रहे हैं जहां रोज शाम को कैरम की बाजी होती है और कैरम की रानी का पीछा होता है।
सीढिय़ों पर लगती है चौपड़ की बाजी चौपड़ खेल की आड़ में जुआ खेले जाने की वजह से अब यह खेल काफी कम हुआ है लेकिन अब भी कभी-कभार लोग चौपड़ खेल लेते हैं। जामा मस्जिद की सीढिय़ों पर चौपड़ खेलने वाले पुराने शौकीन मिल जाते हैं तो एक बाजी भी हो जाती है। मीना बाजार और जामा मस्जिद के सामने बनीं दुकानों के लोग अपने काम से फारिक हो कर यहां जमा होते हैं और खेल के बीच हल्के फुल्के किस्सों पर ठहाके भी लगा लिए जाते हैं।
शह-मात की जुगत में रातें होती हैं बसर न बावर्ची गलियों में जैसे ही पहुंचेंगे तो खालिस कुटे मसालों की गंध आपकी भूख बढ़ा देगी। लाल रंग के पत्थरों से बनी बड़ी हवेलियों के बीच बने चूल्हे और बड़े बड़े देग देख कर ही खाना पकाने के शाही अंदाज का अंदाजा सहज ही लग जाता है। लालकुआं के आसपास कई मशहूर
बावर्ची की दुकान हैं, जहां लोग अपना खाना पकवाते हैं। बावर्ची की गली का पता वहां से आती खुशबू ही लोगों को दे देती है। लाल कुआं के पास रौधग्राम गली के आसपास कई खानदानी बावर्ची रहते हैं जो मुगल जायके न केवल पकाते हैं बल्कि उन्हें लोगों के घरों तक भी पहुंचाते हैं।
मुगल के जमाने से चले आ रहे खानदानी बावर्ची के हाथ के जायके का कोई सानी नहीं है। शायद इसलिए लोग अपनी दावतों को खास बनाने के लिए यहीं से पकाया हुआ खाना ले जाना पसंद करते हैं। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब इन छोटी दुकानों में रखे बड़े बड़े देग में मुगलई खाना न बनता हो। दिल्ली वालों की दावत देने
का शगल आज भी इन्हीं के बलबूते जिंदा है।
यहीं पके हुए मुगलई जायकों से पुरानी दिल्ली में दस्तरखान सजता है। कोरमा, आलू गोश्त, नहारी, चिकन आचारी, काजू कीमा, वाइट चिकन, सभी तरह की बिरयानी, मटन स्टीयू जैसे कई लजीज मुगलई जायके रोजाना पकाए जाते हैं। बावर्ची अब्दुल गनी बताते हैं कि पुरानी दिल्ली के लोग खाने पीने के मामले में बड़े शाही मिजाज वाले हैं। रोजमर्रा के खाने में भी स्वाद होना बेहद जरूरी होता है, तो फिर दावत तो उनके लिए बेहद खास मौका होता है। क्योंकि लोगों के दिल का रास्ता पेट से होकर जो गुजरता है। लोग जन्मदिन, सालगिरह, बच्चे के पास होने की खुशी, कोई भी मौका हो हर छोटी-बड़ी खुशी पर दावत हो जाती है। जब यहां सभी परिवार एक साथ आ
जाते हैं तो भी दावतें हो जाती हैं। बावर्ची कम समय में भी यहां 50 लोगों के लिए खाना बना कर लोगों के घर भिजवा देते हैं। लोग अपनी दावत के मुताबिक मुगलई पकवान बनाने का समान यहां दे जाते हैं, लेकिन मसाले यहीं पुरानी दिल्ली के ही इस्तेमाल किए जाते हैं। शाम को होने वाली दावतों के लिए सुबह से ही तैयारी करनी पड़ती है। धीमी आंच पर प्याज, आलू और मसाले फ्राई किए जाते हैं। खाने में स्वाद लाने के लिए इत्मिनान से खाना पकाया जाता है। वे बताते हैं कि पहले पुरानी दिल्ली में इतना काम हुआ करता था कि यहां के बावर्चियों को बाहर का काम लेने की फुर्सत भी नहीं मिलती थी। लेकिन यहां के बावर्ची अब मुगलई खाना पकाने के लिए दिल्ली के बाहर भी जाने लगे हैं। राज घराने में भी लोग शाही दावतों में दो दर्जन से अधिक किस्मों के नॉनवेज खाना बनाया जाता है।
मिलती है बख्शीश
अब्दुल हकीम बताते हैं कि उनके दादा के जमाने में तो यहां के बावर्चियों का दूर-दूर तक नाम था। एक बार किसी बावर्ची का जायका लोगों को पसंद आ जाता था तो बस लोग उसी से ही अपनी दावतों में खाना बनवाते थे। दावतों में लोगों के खिले हुए चेहरे देखकर लोग अच्छी खासी बख्शीश भी देते थे। लोग अब भी यहां के बावर्चियों के हाथों से पका हुआ खाना पसंद करते हैं। लेकिन वो शगल अब कम हुआ है। केर्टंरग वालों ने तो बावर्चियों का काम ही कम कर दिया है।
हर बावर्ची की अलग पहचान
बबलू बावर्ची बताते हैं कि खाना पकाने के लिए मसाले, बर्तन और बनाने का तरीका बेहद खास होता है। इस मोहल्ले में रहने वाले सभी बावर्चियों के हाथों में अलग-अलग सुस्वाद है। कोई आलू गोश्त बहुत उम्दा बना लेता है तो किसी के हाथ की बिरयानी का कोई जवाब नहीं होता। इसलिए यहां के हर बावर्ची की अपनी पहचान है। लोग यहां से दुबई तक भी दावतों में मुगलई खाना पकाने के लिए जाते हैं।
दिलीप कुमार भी हैं मुरीद बावर्ची अब्दुल हमीद बताते हैं कि उनकी दुकान पर दिलीप कुमार और जॉनी वाकर भी कोरमा बिरयानी का स्वाद लेने आते थे। उनको इसका स्वाद इस कदर पसंद था कि वे अपनी दावतों में यही से बावर्ची बुलाया करते थे। वे बताते हैं कि इंदिरा गांधी ने भी यहां शाही टुकड़ा का स्वाद चखा था।
प्रस्तुति: विजयालक्ष्मी, नई दिल्ली
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