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क्‍या देखा है हजार बागों का यह शहर, अंग्रेज हुक्‍मरानों को खूब पसंद थी यहां की आबो हवा

यह शहर शुरुआत से ही चर्चा में रहा है, चाहे वह बुद्धकाल हो या फिर आजादी की लड़ाई का समय। अंग्रेज हुक्मरानों को यहां की आबोहवा खूब रास आती थी।

By Pratibha Kumari Edited By: Published: Thu, 09 Feb 2017 01:24 PM (IST)Updated: Fri, 10 Feb 2017 12:36 PM (IST)
क्‍या देखा है हजार बागों का यह शहर, अंग्रेज हुक्‍मरानों को खूब पसंद थी यहां की आबो हवा
क्‍या देखा है हजार बागों का यह शहर, अंग्रेज हुक्‍मरानों को खूब पसंद थी यहां की आबो हवा

देश के मर्मस्थल में स्थित हजारीबाग झारखंड की राजधानी से नब्बे किलोमीटर दूर एक खुशगवार कस्बानुमा शहर है जिसका इतिहास बेहद दिलचस्प है। कुछ स्थानीय इतिहासकार सुझाते हैं कि 'हजार बागों का शहर' होने की वजह से इसे यह नाम दिया गया है जबकि दूसरों का मत है कि दो पुरानी आदिवासी बस्तियों के नामसूचक शब्दों को जोड़ कर इस जंगली इलाके की पारंपरिक पहचान तय की गई है।

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'दामोदर नद' हजारी बाग को छूता-सा बह कर निकलता है-वही जो सिंधु एवं ब्रह्मपुत्र की तरह नदी नहीं, 'नद' कहलाता है और जिसके जल को बांध कर बहुमुखी परियोजना ने नये भारत के नये मंदिरों-मस्जिदों-गिरिजाघरों के महत्वाकांक्षी निर्माण का सूत्रपात भाखड़ा तथा हीराकुंड के साथ किया था।


ज्यादातर लोगों के लिए यह नाम 1942 में हजारीबाग सेंट्रल जेल से बंदी जयप्रकाश नारायण के यहां से भाग निकलने की रोमांचक गाथा के साथ जुड़ा है। यह घटना भारत की आजादी की लड़ाई के सबसे रोमांचक अध्यायों में एक है। जल्लाद सरीखे चौकीदारों की आंखों में धूल झोंक कर ऊंची दीवार फांदने के बाद भी घने जंगलों में घूमते खूंखार जानवरों से जान बचाना आसान नहीं था। स्वाधीनता प्रेमी स्थानीय आदिवासियों के समर्थन के बिना यह पराक्रम असंभव था।

हजारीबाग आज एक जिले का नाम भी है और उसके मुख्यालय का भी। जिले की पूर्वी सरहद बंगाल के संथाल परगना को छूती है तो पश्चिमी पलामू को। उत्तर में बिहार का गया जिला लगता है तो दक्षिण में गिरिडीह जिसका उल्लेख बुद्ध के जीवन चरित में मिलता है। मुगल काल तक यह इलाका अछूता रहा। हालांकि कलकत्ता से बनारस तक पहुंचने के लिए यह शॉर्टकट था जिसका उपयोग सेनाएं करती थीं। साधारण यात्री लुटेरों और खूंखार जानवरों के डर से इस तरफ रुख नहीं करते थे।


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अंग्रेजों द्वारा ट्रंक रोड का जीर्णोद्धार किए जाने के बाद हजारीबाग एक बार फिर पूरी तरह गुमनामी में खो जाता, यदि गोरे हुक्मरानों को यहां की आबोहवा इतनी रास न आती। उन्होंने यहां एक छावनी स्थापित की और इसे अपना शिकारगाह बना लिया। उसी समय यह पता चला कि औपनिवेशिक शासन काल में विभाजन के पहले यह भूभाग विशाल बंगाल-बिहार के संयुक्त प्रांत का हिस्सा रहा है जिसमें ओडिशा भी शामिल था। यह स्वाभाविक ही है कि इन पड़ोसियों के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान की छाप खान-पान, बोली, लोक संगीत और नृत्य में आज भी देखी जा सकती है।

यहां जमीन के गर्भ में कोयलों का बडा भंडार है और पड़ोस में धनबाद के साथ-साथ खदानों के दोहन की योजनाएं बनाई जाने लगीं। 19वीं सदी के अंतिम चरण में रवींद्र नाथ ठाकुर यहां पहुंचे और अपने एक रोचक यात्रा वृत्तांत में उन्होंने इसका बखान किया। 20वीं सदी में सुभाषचंद्र बोस ने भी कुछ दिन यहां बिताए।

स्वास्थ्य लाभ के लिए देवघर पहुंचने वाले बंगालियों के लिए हजारीबाग जाना एकरसता को तोड़ने वाला सुखद अनुभव होता था। कोलकाता के 'भद्रलोक' जमींदारों की कोठियां अंग्रेज हाकिमों के बड़े-बड़े बंगलों के साथ आज भी यहां देखे जा सकते हैं।

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शहर में एक सुंदर झील है जो पर्यटकों को आकर्षित करती है और शहर की आबोहवा को किसी 'हिल स्टेशन' जैसा बनाती है। कैनरी पहाड़ी की चोटी से आस-पास का मनोहर विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। अधिकतर लोग इस गलतफहमी के शिकार हैं कि यह नाम एक पक्षी की प्रजाति पर आधारित है, जबकि हकीकत यह है कि आदिवासी भाषा में इस शब्द का अर्थ है- तीर-कमान की शक्ल वाला। करीब ही एक सुरम्य राष्ट्रीय पार्क है। आस्थावान तीर्थयात्रियों के लिए वैद्यनाथ धाम और पारसनाथ पहुंचने के लिए हजारीबाग एक बेहतरीन पड़ाव है।

-पुष्पेश पंत


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