Move to Jagran APP

बावली तो थीं दिलबहलाव ठिकाने

वैसे तो बावली दिल्ली में और भी जगहों पर हैं लेकिन सबसे पुराने शहर महरौली की बावली बड़ी खास होने के साथ ऐतिहासिक रूप से भी विशेष मानी गई हैं।

By Babita KashyapEdited By: Published: Sat, 15 Apr 2017 03:03 PM (IST)Updated: Sun, 16 Apr 2017 01:00 PM (IST)
बावली तो थीं दिलबहलाव ठिकाने
बावली तो थीं दिलबहलाव ठिकाने

दिल्ली वालों की अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता यह भी रही है कि किसी चीज में मनोरंजन और दिलबहलावे की गुंजाइश हो तो वे खतरा मोल लेकर भी करते हैं। कहें तो ये दिल्ली बड़ी डेयर यानी हर काम में साहसी रही है। और ये कोई अभी डेयर नहीं हो गई है। इसकी डेयरनेस तो अर्सों से दिखती रही है। इसके मनोरंजन के साधन भी गजब रहे हैं। अब बावलियों को ही ले लें। वैसे तो बावली दिल्ली में और भी जगहों पर हैं लेकिन सबसे पुराने शहर महरौली की बावली बड़ी खास होने के साथ ऐतिहासिक रूप से भी विशेष मानी गई हैं। राजाओं की बावली जिसे 'राजों की बेनÓ भी कहा गया है। इसका इतिहास तो दिलचस्प रहा ही है। यह मनोरंजन का भी बड़ा अच्छा साधन रही है। खासकर गर्मियों में। आज यदि आपके बच्चे गर्मी से चिलमिलाएंगे तो आपको स्वीमिंग पूल या वाटर पार्क ही नजर आएंगे। लेकिन पहली दिल्ली इन बावलियों में जो आज आपको सूखी और रूखी सी पानी को तरसती सी नजर आती हैं इनमें ही छलांगे लगाती थी। झरने होते थे। लोग किसी भी वक्त ठंडक की अनुभूति करने और गर्मी को ठेंगा दिखाने यहां चले आते थे। लोगों का हुजूम जुटता था। यहीं चार मंजिला सीढिय़ों और मेहराबों में उनका मनोरंजन भी हो जाता था। आखिर मुस्लिम शासकों ने बावलियों को बढिय़ा ढंग से मनोरंजन स्थलों के रूप में बनवाया ही था। उनमें अंदर ही अंदर जाने वाले लंबे रास्ते, हौज के ऊपर मेहराबें और ऊपर से नीचे उतरने वाली सीढिय़ां होती थीं। यहीं दर्शकों को तैराकी-गौताखोरों का डेयर भी देखने को मिल जाता। महेश्वर दयाल की किताब 'दिल्ली जो एक शहर हैÓ किताब में लिखा है कि जब यहां नौजवान तैराकों का ऊंची-ऊंची छलांग का खेल शुरू होता तो सैलानी छज्जों (इस बावली के छज्जे सबसे ऊंचे माने जाते हैं) पर दर्शकों की भूमिका में जुट जाते और बावली तालियों की गडग़ड़ाहट से गुंजायमान हो जाती। इनके उस्ताद और खलीफे भी अपने कमाल दिखाते और उनके संरक्षक उन्हें ईनाम और बख्शीश देते। आज भी लोग जब आर्केलॉजिकल पार्क घूमने के लिए बतौर पर्यटक पहुंचते हैं तो इस बावली को देखने जानने का मौका मिलता है। लेकिन सिर्फ इसके इतिहास के झरोखों तक ही पहुंच पाते हैं। और सीढिय़ों पर बैठकर कुछ राहत भरा वक्त बिता पाते हैं। इस बावली का इतिहास बताता है इसके पानी का इस्तेमाल इस इलाके में रहने और निर्माण कार्यों में लगे राज और मिस्त्रियों द्वारा किया जाता था। इसलिए इसका नाम राजा की बेन पड़ा। बावली महरौली में आदम खां के मकबरे के दक्षिण में करीब 500 गज की दूरी पर बनी हुई है। इस बावली को इस तरह से बनाया गया था कि इसकी सीढिय़ों से उतरकर साथ बनी मस्जिद में भी आया-जाया जा सके। मस्जिद के सामने बनी छतरी पर लगे हुए एक पत्थर पर लिखी गई इबारत से इस बावली के 1506 ई. में बनाए जाने की पुष्टि होती है। 

prime article banner

-पानी का धनी रहा है पुराना शहर : 

आज महरौली की गलियां पानी को तरसती हैं लोग रात को सोने के समय पर जागकर पानी भरते हैं। लेकिन इसी महरौली का इतिहास बताता है यह जगह दिल्ली में सबसे अधिक पानी के स्रोतों वाली जगह रही है। 'दिल्ली जो एक शहर हैÓ में इसका जिक्र मिलता है महरौली के आसपास छोटी-छोटी पहाडिय़ां और पथरीले टीले थे और कई जगहों पर उनके बीच पथरीली दीवारों से घिरी हुई ऐसी नीची जमीन होती जहां बारिश का पानी इक_ा हो जाता और अगली बारिश तक न सूखता था।

पानी और मनोरंजन की धनी इन बावलियों में लोग निरोगी भी हो जाते थे। जी, गंधक की बावली (जिसका जिक्र हमने साइकिल टूर में भी किया है) यहां इस बावली में लोग अपनी त्वचा के रोगों के उपचार के लिए भी नहाते थे और उसका पानी बोतलों और शीशियों में भरकर घर भी ले जाते थे। अब भले न दवा है न पानी है।  

-प्रस्तुति : मनु त्यागी 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.