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औरंगाबाद: कदम-कदम पर बिखरा इतिहास

By Edited By: Published: Mon, 28 Jan 2013 06:09 PM (IST)Updated: Mon, 28 Jan 2013 06:09 PM (IST)
औरंगाबाद: कदम-कदम पर बिखरा इतिहास

[एल. मोहन कोठियाल]। रंगाबाद ने कई सत्ताओं को बनते मिटते देखा। मौर्यकाल में यहां का इतिहास अस्पष्ट है। दूसरी सदी ईसा पूर्व में इस क्षेत्र में सातवाहन राजाओं की सत्ता रही जिनकी राजधानी एक समय औरंगाबाद जिले के प्रतिष्ठान (वर्तमान पैठण) में थी। सातवाहन राजाओं का काल तीन से चार सदी का माना जाता है। उनके बाद वाकाटक सत्ता पर काबिज हुए। सातवाहन व वाकाटकों की बौद्ध धर्म में आस्था थी। दक्षिण में छठी शती के बाद कर्नाटक में चालुक्यों का प्रादुर्भाव हुआ। इनके राजा पुलकेशियन द्वितीय के समय इस साम्राज्य की सीमाएं उत्तर में गोदावरी व दक्षिण में कावेरी तक विस्तार ले चुकी थीं। वाकाटकों की सत्ता सिमटने से बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हो चुका था। छठी से आठवीं शती का काल चालुक्यों का रहा। यह पत्थरों पर शिल्प के चरम का काल था। सातवीं शती के मध्य में चालुक्यों पर राष्ट्रकूटों के हमले के बाद उनका लगभग पतन हो गया। राष्ट्रकूटों की सत्ता भी दो से ढाई सदी तक रही। तदोपरांत उनका साम्राज्य कई भागों में बंट गया। 10वीं-13वीं शती में मध्य भारत में सिउना यादव राजा शासक बन कर उभरे। इस कुल के नरेश भिल्लम ने 1192 के आसपास देवगिरी (दौलताबाद) में अपनी राजधानी बनाई व एक अभेद्य दुर्ग का निर्माण करवाया। इस राज्य का विस्तार बहुत अधिक तो नहीं था किन्तु देवगिरी किले की कीर्ति दूर-दूर तक थी। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यह तब बनाया गया जब राष्ट्रकूट शासक ऐलोरा में गुफाओं का निर्माण करवा रहे थे। लेकिन कुछ इसे यादव राजाओं द्वारा ही निर्मित मानते हैं। दक्षिण में इस्लामी शासकों ने सबसे पहले इस पर कब्जे से अपनी सत्ता आरंभ की। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को जब इस दुर्ग का पता चला तो उसने एक रणनीति के तहत इस किले को जीतने में सफलता पाई। यादव नरेश रामचन्द्र देवा अचानक हमले में संभल न सके और जबरदस्त व्यूह रचना वाले इस किले में खिलजी की सेना प्रवेश करने में सफल रही। खिलजी यहां से बड़ी मात्रा में धन दौलत लूट कर दिल्ली ले गया। हमले के बाद हुए समझौते के तहत राजा रामचन्द्र देवा ने दिल्ली सल्तनत को नजराना देना कबूल किया लेकिन जब उसकी मृत्यु हई तो उसके पुत्र शंकर ने नजराना देना बंद कर दिया। इस पर दिल्ली के सुल्तान ने फिर से देवगिरी पर हमला बोला, जिसमें शंकर मारा गया। शंकर के बाद रामचंद्र के दामाद ने इस किले को पाने के लिए अंतिम संघर्ष किया लेकिन उसकी मृत्यु से राज्य की कमान पूणर्तया मुसिलम शासकों के अधीन हो गई।

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चौदहवीं शती के आरंभ में दिल्ली सल्तनत पर तुगलक वंश का अधिपत्य हुआ। सन 1325 में मोहम्मद तुगलक जब दिल्ली का बादशाह बना तो वह दिल्ली पर मंगोलों के हमले होने व दक्षिण को जीतने के मंसूबों के कारण अपनी राजधानी को दिल्ली से देवगिरी ले गया। उसने ही देवगिरि को दौलताबाद नाम दिया लेकिन कुछ समय बाद जब दूसरी समस्याएं सामने आन खड़ी हुई तो उसे राजधानी को वापिस दिल्ली लाना पड़ा। उसके दिल्ली जाते ही उसकी दक्षिण में पकड़ कमजोर हो गई और सत्ता संघर्ष में बहमनी शासकों का दौलताबाद पर कब्जा हो गया। बहमनी शासकों ने इस इलाके पर डेढ़ सौ साल तक शासन किया। वर्ष 1499 में बहमनी सल्तनत भी पांच दूसरी सल्तनतों- अहमदनगर, गोलकुंडा, बीदर, विरार बीजापुर निजामों में बंट गई और दौलताबाद अहमदनगर निजाम का हिस्सा हो गया।

खड़की से औरंगाबाद निजामशाही के समय औरंगाबाद में खड़की गांव था जहां से कई दिशाओं के लिए मार्ग निकलते थे। सामरिक महत्व को देखते हुए अहमदनगर के निजाम ने 1610 ई. में अंबर मलिक को वहां अपना मंत्री नियुक्त किया जिसने वहां पर मसजिद, सराय व महल आदि बनवाए। इस समय उत्तर भारत में मुगल बादशाह अकबर के समय सीमाएं विस्तार ले रही थी किंतु दक्षिण की सल्तनतें राह में बड़ा रोड़ा थीं। 1621 में अकबर ने अपने पुत्र जहांगीर को भेज अहमदनगर के निजाम पर एक बड़ा हमला करवाया जिसमें खडकी नेस्तनाबूद हो गया। लेकिन अहमदनगर पर उसका नियंत्रण न हो सका। सन 1626 में अंबर मलिक के निधन के बाद उसके पुत्र फतेहखान को यहां की जिम्मेदारी दी गई जिसने खड़की को आबाद कर इसे फतेहनगर नाम दिया। लेकिन 1637 में जल्द ही दौलताबाद व फतेहनगर पर मुगल सल्तनत का कब्जा हो गया।

शाहजहां के समय पर दक्षिण से लगातार चुनौतियों के मिलने व सत्ता संघर्ष को देख शाहजहां ने 1653 में औरंगजेब को दक्षिण का स्थायी हाकिम नियुक्त किया जिसने फतेहनगर को अपनी राजधानी के लिए चुना। कुछ साल स्थायी रूप से यहां रहने के बाद वह मुगल सल्तनत पर काबिज होने में सफल रहा। सत्ता विस्तार के लिए उसने दक्षिण में अनेक युद्ध किए लेकिन मराठों के आगे उनकी कुछ न चली। यहां तक कि औरंगजेब की मृत्यु भी अहमदनगर में हुई। औरंगजेब के समय औरंगाबाद दक्षिण में मुगलसत्ता की राजधानी बना रहा जहां इस मुगल बादशाह ने कई मसजिदें, सराय व बाग आदि बनवाये। उसने ही फतेहनगर का नाम औरंगाबाद किया लेकिन 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल की सत्ता कमजोर होती चली गई। शनै-शनै उनके बादशाहों की ताकत व राज्य ही सीमा घटती चली गई। इसका लाभ ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उठाया और भारत के एक बड़े हिस्से पर आधिपत्य कर लिया गया। मुगलों की ताकत कमजोर होते ही उसके ही सिपहसलारों ने औरंगाबाद पर कब्जा कर लिया और अपने निजाम की राजधानी को हैदराबाद बना दिया। इससे औरंगाबाद की पहचान खत्म हो गई। 17 सितम्बर, 1948 को जब हैदराबाद रियासत का भारत में विलय हुआ तभी औरंगाबाद स्वतन्त्र भारत का अंग बना। 1960 में भाषाई आधार पर इसे महाराष्ट्र में शामिल किया गया।

गुफाएं इस जिले में गुप्तकाल, सातवाहन, वाकाटक, राष्ट्रकूट, तुगलक, मुगलकाल, निजामशाही के समय बनी संरचनाएं देखने को मिलती है। संतोष इस बात का है कि काल के थपेड़ों व बाहरी हमलों के बावजूद वे विरासतें यहां बची रह गई। अजंता व ऐलोरा के अलावा औरंगाबाद में दो अन्य गुफा समूह भी हैं। नगर से 5 किमी दूर बीबी के मकबरे के समीप पहाड़ी पर औरंगाबाद गुफा एक प्रमुख गुफा समूह है। 6-8वीं शती के मध्य बनी इन बौद्ध गुफाओं की संख्या 12 है। इनको देखने के लिए अधिक पैदल चलना होता है लिहाजा कठिन मार्ग के कारण कई पर्यटक यहां तक नहीं पहुंच पाते हैं। इसी तरह से औरंगाबाद से चालीस गांव सड़क मार्ग पर 50 किमी दूर उत्तर पश्चिम में पीतलखोड़ा की गुफाएं भी उल्लेखनीय हैं। इनमें से कुछ ध्वस्त हो चुकी है या उनकी चित्रकारी खराब हो चुकी हैं। इनकी संख्या 14 है। यहां पर ज्यादातर बौद्ध गुफाएं है।

दूसरा ताज: बीबी का मकबराऔरंगाबाद नगर में बीबी का मकबरा सबमें दर्शनीय है जो आगरा के ताजमहल की तर्ज पर बनवाया गया। औरंगाबाद: कदम-कदम पर बिखरा इतिहास यह पश्चिम व दक्षिण भारत में सबसे भव्य इस्लामी इमारत है। बीबी के मकबरे को औरंगजेब के पुत्र आजम शाह ने अपनी मां रबिया बेगम दुर्रानी की स्मृति में 1660 में बनवाया था जो कम उम्र में गुजर गई थीं। यह मकबरा एकबारगी ताजमहल का अहसास कराता है हालांकि यह उस जैसा भव्य व विशाल नहीं है। यहां पर दिन भर पर्यटकों का तांता लगा रहता है। मकबरे के आगे व पीछे पानी के फव्वारे हैं। पीछे औरंगाबाद की पहाडि़यां हैं। औरंगाबाद की पनचक्की में भी पर्यटक बड़ी संख्या में आते है जिसे सूफी बाबा शाह मुसाफिर ने 1624 में बनवाया था। इसका पानी 11 किमी दूर से मिटटी के पाइपों से साइफन विधि से पहुंचाया गया है। यह चक्की आज भी चलती है। इस स्थान पर अंदर एक मसजिद है। नगर में सुनहरी महल, जामा मसजिद, औरंगजेब के समय के बगीचे भी हैं। औरंगाबाद के मीठे पान का जवाब नहीं। पान की दुकानों पर रात तक भीड़ दिखाई दे जाती है। ऐलोरा के समीप ही प्रसिद्ध घृष्णेश्वर मंदिर है जो 12 ज्योतिर्लिगों में से एक है। यह तंजावुर के वृहदीश्वर मंदिर का लघु रूप सा दिखता है। यहां पूजा पवरें पर भारी भीड़ होती है। अट्ठारवीं शती में निर्मित यह मंदिर अहिल्याबाई होलकर द्वारा बनाया गया। औरंगाबाद अपने हिमरू शालों के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है इसके कारीगर तुगलक के समय यहां आए थे लेकिन वे लौटकर दिल्ली नहीं गए। इनकी वर्तमान पीढ़ी ने अपना पुश्तैनी हुनर नहीं छोड़ा है।

हस्तशिल्प का केंद्र पैठण औरंगाबाद के दक्षिण में लगभग 50 किमी दूर पैठण नामक स्थान है जो एक समय सातवाहनों की राजधानी थी। आज यहां पर प्राचीन नगरी का अता पता तो नहीं है किन्तु पैठण की नई पहचान हस्त शिल्प के केंद्र की है। यहां की पैठाणी साडि़यां बेहद प्रसिद्ध हैं। रेशमी साडि़यों पर जरी का काम की यह कला पीढि़यों से चली आ रही है। इनकी कीमत लाखों रुपये तक होती। यहां पर दूसरा हस्तशिल्प भी बनता है।

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